अध्याय 10: विभूति योग

भगवान के अनन्त वैभवों की स्तुति द्वारा प्राप्त योग 42 वर्सेज

इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने अपनी भव्य और दीप्तिमान महिमा का वर्णन किया है जिससे अर्जुन को भगवान में अपना ध्यान केन्द्रित करने में सहायता मिल सके। नौवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने भक्ति योग या प्रेममयी भक्ति की व्याख्या करते हुए अपने कुछ वैभवों का वर्णन किया था। यहाँ इस अध्याय में वे आगे अर्जुन के भीतर श्रद्धा भक्ति को बढ़ाने के प्रयोजनार्थ अपनी अनन्त महिमा का पुनः वर्णन करते हैं। इन श्लोकों को पढ़ने से आनन्द की अनुभूति होती है और इनका श्रवण करने से मन प्रफुल्लित हो जाता है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे सृष्टि में प्रकट प्रत्येक अस्तित्व का स्रोत हैं। मनुष्यों में विविध प्रकार के गुण उन्हीं से उत्पन्न होते हैं। सात महर्षि, चार महान ऋषि और चौदह मनुओं का जन्म उनके मन से हुआ और बाद में संसार के सभी मनुष्य इनसे प्रकट हुए। जो यह जानते हैं कि सबका उद्गम भगवान हैं, वे अगाध श्रद्धा के साथ उनकी भक्ति में तल्लीन रहते हैं। ऐसे भक्त उनकी महिमा की चर्चा कर पूर्ण संतुष्टि एवं मानसिक शांति प्राप्त करते हैं और अन्य लोगों को भी जागृत करते हैं क्योंकि उनका मन उनमें एकीकृत हो जाता है। इसलिए भगवान उनके हृदय में बैठकर उन्हें दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं ताकि वे उन्हें सुगमता से प्राप्त कर सकें। श्रीकृष्ण से यह सब सुनकर अर्जुन कहता है कि उसे पूर्ण रूप से भगवान की सर्वोच्च स्थिति का बोध हो गया है और वह यह घोषणा करता है कि भगवान श्रीकृष्ण संसार के परम स्वामी हैं। फिर वह भगवान से विनम्र अनुरोध करता है कि वे पुनः अपनी अनुपम महिमा का और अधिक से अधिक वर्णन करें जिसका श्रवण करना अर्जुन के लिए अमृत का सेवन करने के समान है। श्रीकृष्ण प्रकट करते हैं क्योंकि वे ही सभी का आदि, मध्य और अन्त हैं इसलिए सभी अस्तित्व उनकी शक्तियों की अभिव्यक्ति हैं। वे सौंदर्य, वैभव, शक्ति, ज्ञान और समृद्धि का अनन्त महासागर हैं। जब हम कहीं किसी असाधारण ज्योति को देखते हैं जो हमारी कल्पना को हर्षोन्माद कर देती है और हमें आनन्द में निमग्न कर देती है तब हमें उसे और कुछ न मानकर भगवान की महिमा का स्फुलिंग मानना चाहिए। वे ऐसे विद्युत गृह के समान हैं जहाँ से मानवजाति के साथ-साथ ब्रह्माण्ड में सभी पदार्थ अपनी ऊर्जा प्राप्त करते हैं। तत्पश्चात शेष अध्याय में वे उन सभी श्रेष्ठ पदार्थों, व्यक्तित्वों और क्रियाओं का मनमोहक वर्णन करते हैं जो उनके विशाल वैभव को प्रदर्शित करते हैं। इस प्रकार से वे यह कह कर इस सुन्दर अध्याय का समापन करते हैं कि उन्होंने अभी तक अपनी जिस अनुपम महिमा का वर्णन किया है उससे उनकी अनन्त महिमा के महत्व का अनुमान नहीं लगाया जा सकता क्योंकि वे ही अनन्त ब्रह्माण्डों को अपने दिव्य स्वरूप के एक अंश के रूप में धारण किए हुए हैं। इसलिए हम मानवों को भगवान, जो सभी प्रकार के वैभवों का स्रोत हैं, उन्हें ही अपनी आराधना का लक्ष्य मानना चाहिए।

भगवद गीता अध्याय 10: विभूति योग