अध्याय 4: ज्ञान कर्म संन्यास योग

ज्ञान का योग और कर्म का अनुशासन 42 वर्सेज

चौथे अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को दिए जा रहे दिव्य ज्ञान के आदिकालीन उद्गम को प्रकट करते हुए उसमें उसके विश्वास को पुष्ट करते हैं। वे बताते हैं कि यह वही शाश्वत ज्ञान है जिसका उपदेश उन्होंने आरम्भ में सर्वप्रथम सूर्यदेव को दिया था और फिर परम्परागत पद्धति से यह ज्ञान निरन्तर राजर्षियों तक पहँचा। अब वे अर्जुन, जो उनका प्रिय मित्र और परमभक्त है, के सम्मुख इस दिव्य ज्ञान को प्रकट कर रहे हैं। तब अर्जुन प्रश्न करता है कि वे श्रीकृष्ण जो वर्तमान में उसके सम्मुख खड़े हैं वे इस ज्ञान का उपदेश युगों पूर्व सूर्यदेव को कैसे दे सके? इसके प्रत्युत्तर में श्रीकृष्ण अपने अवतारों का रहस्य प्रकट करते हैं। वे बताते हैं कि भगवान अजन्मा और सनातन हैं फिर भी वे अपनी योगमाया शक्ति द्वारा धर्म की स्थापना के लिए पृथ्वी पर प्रकट होते हैं लेकिन उनके जन्म और कर्म दिव्य होते हैं और वे भौतिक विकारों से दूषित नहीं हो सकते। जो इस रहस्य को जानते हैं वे अगाध श्रद्धा के साथ उनकी भक्ति में तल्लीन रहते हैं और उन्हें प्राप्त कर फिर इस संसार में पुनः जन्म नहीं लेते। इसके पश्चात इस अध्याय में कर्म की प्रकृति का व्याख्यान किया गया है और कर्म, अकर्मण्यता तथा वर्जित कर्म से संबंधित तीन सिद्धातों पर चर्चा की गयी है। इनसे विदित होता है कि कर्मयोगी अनेक प्रकार के सांसारिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए अकर्मा की अवस्था प्राप्त कर लेते हैं और इसलिए वे कार्मिक प्रतिक्रियाओं में नहीं फंसते। इसी ज्ञान के साथ प्राचीन काल में ऋषि मुनि सफलता और असफलता, सुख-दुख से प्रभावित हुए बिना केवल भगवान के सुख के लिए यज्ञ के रूप में कर्म करते थे। यज्ञ कई प्रकार के होते हैं और इनमें से कई यज्ञों का उल्लेख यहाँ किया गया है। जब यज्ञ पूर्ण समर्पण की भावना से सम्पन्न किए जाते हैं तब इनके अवशेष अमृत के समान बन जाते हैं। ऐसे अमृत का पान करने से साधक के भीतर की अशुद्धता समाप्त हो जाती है। इसलिए यज्ञों का अनुष्ठान पूर्ण निष्ठा और ज्ञान के साथ करना चाहिए। ज्ञान रूपी नौका की सहायता से महापापी भी संसार रूपी कष्टों के सागर को सरलता से पार कर लेता है। ऐसा दिव्य ज्ञान वास्तविक आध्यात्मिक गुरु से प्राप्त करना चाहिए जो परम सत्य को जान चुका हो। श्रीकृष्ण गुरु के रूप में अर्जुन से कहते हैं कि ज्ञान की खड्ग से अपने हृदय में उत्पन्न हुए सन्देहों को काट दो, उठो और युद्ध लड़ने के अपने कर्त्तव्य का पालन करो।

कविता 29-30

।।4.29 -- 4.30।। दूसरे कितने ही प्राणायामके परायण हुए योगीलोग अपानमें प्राणका पूरक करके, प्राण और अपानकी गति रोककर फिर प्राणमें अपानका हवन करते हैं; तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करनेवाले प्राणोंका प्राणोंमें हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञोंद्वारा पापोंका नाश करनेवाले और यज्ञोंको जाननेवाले हैं। ।।4.29 -- 4.30।। दूसरे कितने ही प्राणायामके परायण हुए योगीलोग अपानमें प्राणका पूरक करके, प्राण और अपानकी गति रोककर फिर प्राणमें अपानका हवन करते हैं; तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करनेवाले प्राणोंका प्राणोंमें हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञोंद्वारा पापोंका नाश करनेवाले और यज्ञोंको जाननेवाले हैं।

भगवद गीता अध्याय 4: ज्ञान कर्म संन्यास योग