Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।2.23।।

nainaṁ chhindanti śhastrāṇi nainaṁ dahati pāvakaḥ na chainaṁ kledayantyāpo na śhoṣhayati mārutaḥ

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Word Meanings

nanot
enamthis soul
chhindantishred
śhastrāṇiweapons
nanor
enamthis soul
dahatiburns
pāvakaḥfire
nanot
chaand
enamthis soul
kledayantimoisten
āpaḥwater
nanor
śhoṣhayatidry
mārutaḥwind
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अनुवाद

।।2.23।। शस्त्र इस शरीरीको काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती।  

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टीका

।।2.23।। व्याख्या --'नैनं छिन्दन्ति शास्त्राणि'-- इस शरीरीको शस्त्र नहीं काट सकते; क्योंकि ये प्राकृत शस्त्र वहाँतक पहुँच ही नहीं सकते। जितने भी शस्त्र हैं, वे सभी पृथ्वी-तत्त्वसे उत्पन्न होते हैं। यह पृथ्वी-तत्त्व इस शरीरीमें किसी तरहका कोई विकार नहीं पैदा कर सकता। इतना ही नहीं, पृथ्वी-तत्त्व इस शरीरीतक पहुँच ही नहीं सकता, फिर विकृति करनेकी बात तो दूर ही रही!  'नैनं दहति पावकः'-- अग्नि इस शरीरीको

जला नहीं सकती; क्योंकि अग्नि वहाँतक पहुँच ही नहीं सकती। जब वहाँतक पहुँच ही नहीं सकती, तब उसके द्वारा जलाना कैसे सम्भव हो सकता है? तात्पर्य है कि अग्नि-तत्त्व इस शरीरीमें कभी किसी तरहका विकार उत्पन्न कर ही नहीं सकता।  'न चैनं क्लेदयन्त्यापः'-- जल इसको गीला नहीं कर सकता; क्योंकि जल वहाँतक पहुँच ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि जल-तत्त्व इस शरीरीमें किसी प्रकारका विकार पैदा नहीं कर सकता।  'न शोषयति मारुतः'-- वायु

इसको सुखा नहीं सकती अर्थात वायुमें इस शरीरीको सुखानेकी सामर्थ्य नहीं है; क्योंकि वायु वहाँतक पहुँचती ही नहीं। तात्पर्य है कि वायु-तत्त्व इस शरीरीमें किसी तरहकी विकृति पैदा नहीं कर सकता। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश--ये पाँच महाभूत कहलाते हैं। भगवान्ने इनमेंसे चार ही महाभूतोंकी बात कही है कि ये पृथ्वी, जल, तेज और वायु इस शरीरीमें किसी तरहकी विकृति नहीं कर सकते; परन्तु पाँचवें महाभूत आकाशकी कोई चर्चा

ही नहीं की है। इसका कारण यह है कि आकाशमें कोई भी क्रिया करनेकी शक्ति नहीं है। क्रिया (विकृति) करनेकी शक्ति तो इन चार महाभूतोंमें ही है। आकाश तो इन सबको अवकाशमात्र देता है। पृथ्वी, जल, तेज और वायु--ये चारों तत्त्व आकाशसे ही उत्पन्न होते हैं, पर वे अपने कारणभूत आकाशमें भी किसी तरहका विकार पैदा नहीं कर सकते अर्थात् पृथ्वी आकाशका छेदन नहीं कर सकती, जल गीला नहीं कर सकता, अग्नि जला नहीं सकती और वायु सुखा

नहीं सकती। जब ये चारों तत्त्व अपने कारणभूत आकाशको, आकाशके कारणभूत महत्तत्त्वको और महत्तत्त्वके कारणभूत प्रकृतिको भी कोई क्षति नहीं पहुँचा सकते, तब प्रकृतिसे सर्वथा अतीत शरीरीतक ये पहुँच ही कैसे सकते हैं? इन गुणयुक्त पदार्थोंकी उस निर्गुण-तत्त्वमें पहुँच ही कैसे हो सकती है? नहीं हो सकती (गीता 13। 31)। शरीरी नित्य-तत्त्व है। पृथ्वी आदि चारों तत्त्वोंको इसीसे सत्ता-स्फूर्ति मिलती है। अतः जिससे इन तत्त्वोंको

सत्ता-स्फूर्ति मिलती है, उसको ये कैसे विकृत कर सकते है यह शरीरी सर्वव्यापक है और पृथ्वी आदि चारों तत्त्व व्याप्य हैं अर्थात् शरीरीके अन्तर्गत हैं। अतः व्याप्य वस्तु व्यापकको कैसे नुकसान पहुँचा सकती है उसको नुकसान पहुँचाना सम्भव ही नहीं है। यहाँ युद्धका प्रसङ्ग है। 'ये सब सम्बन्धी मर जायँगे'--इस बातको लेकर अर्जुन शोक कर रहे हैं। अतः भगवान् कहते हैं कि ये कैसे मर जायँगे? क्योंकि वहाँतक अस्त्र-शस्त्रोंकी

क्रिया पहुँचती ही नहीं अर्थात् शस्त्रके द्वारा शरीर कट जानेपर भी शरीरी नहीं कटता, अग्न्यस्त्रके द्वारा शरीर जल जानेपर शरीरी नहीं जलता, वरुणास्त्रके द्वारा शरीर गल जानेपर भी शरीरी नहीं गलता और वायव्यास्त्रके द्वारा शरीर सूख जानेपर भी शरीरी नहीं सूखता। तात्पर्य है कि अस्त्र-शस्त्रोंके द्वारा शरीर मर जानेपर भी शरीरी नहीं मरता, प्रत्युत ज्यों-का-त्यों निर्विकार रहता है। अतः इसको लेकर शोक करना तेरी बिलकुल ही बेसमझी है।

भगवद गीता 2.23 - अध्याय 2 श्लोक 23 हिंदी और अंग्रेजी