Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमो मतः।।6.32।।

ātmaupamyena sarvatra samaṁ paśhyati yo ’rjuna sukhaṁ vā yadi vā duḥkhaṁ sa yogī paramo mataḥ

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Word Meanings

ātma-aupamyenasimilar to oneself
sarvatraeverywhere
samamequally
paśhyatisee
yaḥwho
arjunaArjun
sukhamjoy
or
yadiif
or
duḥkhamsorrow
saḥsuch
yogīa yogi
paramaḥhighest
mataḥis considered
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अनुवाद

।।6.32।। हे अर्जुन ! जो (ध्यानयुक्त ज्ञानी महापुरुष) अपने शरीरकी उपमासे सब जगह अपनेको समान देखता है और सुख अथवा दुःखको भी समान देखता है, वह परम योगी माना गया है।

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टीका

।।6.32।। व्याख्या--[जिसको इसी अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें 'ब्रह्मभूत' कहा है और जिसको अट्ठाईसवें श्लोकमें 'अत्यन्त सुख' की प्राप्ति होनेकी बात कही है, उस सांख्ययोगीका प्राणियोंके साथ कैसा बर्ताव होता है--इसका इस श्लोकमें वर्णन किया गया है। कारण कि गीताके ब्रह्मभूत सांख्ययोगीका सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें स्वाभाविक ही रति होती है--'सर्वभूतहिते रताः'(5। 25 12। 4)]

भगवद गीता 6.32 - अध्याय 6 श्लोक 32 हिंदी और अंग्रेजी