Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

युञ्जन्नेवं सदाऽऽत्मानं योगी विगतकल्मषः। सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते।।6.28।।

yuñjann evaṁ sadātmānaṁ yogī vigata-kalmaṣhaḥ sukhena brahma-sansparśham atyantaṁ sukham aśhnute

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Word Meanings

yuñjanuniting (the self with God)
evamthus
sadāalways
ātmānamthe self
yogīa yogi
vigatafreed from
kalmaṣhaḥsins
sukhenaeasily
brahma-sansparśhamconstantly in touch with the Supreme
atyantamthe highest
sukhambliss
aśhnuteattains
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अनुवाद

।।6.28।। इस प्रकार अपने-आपको सदा परमात्मामें लगाता हुआ पापरहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्मप्राप्तिरूप अत्यन्त सुखको प्राप्त हो जाता है।

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टीका

।।6.28।। व्याख्या--'युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः'--अपनी स्थितिके लिये जो (मनको बार-बार लगाना आदि) अभ्यास किया जाता है, वह अभ्यास यहाँ नहीं है। यहाँ तो अनभ्यास ही अभ्यास है अर्थात् अपने स्वरूपमें अपने-आपको दृढ़ रखना ही अभ्यास है। इस अभ्यासमें अभ्यासवृत्ति नहीं है। ऐसे अभ्याससे वह योगी अहंताममतारहित हो जाता है। अहंता और ममतासे रहित होना ही पापोंसे रहित होना है; क्योंकि संसारके साथ अहंता-ममतापूर्वक

सम्बन्ध रखना ही पाप है।पंद्रहवें श्लोकमें 'युञ्जन्नेवम्' पद सगुणके ध्यानके लिये आया है और यहाँ 'युञ्जन्नेवम्' पद निर्गुणके ध्यानके लिये आया है। ऐसे ही पंद्रहवें श्लोकमें 'नियतमानसः' आया है और यहाँ 'विगतकल्मषः' आया है; क्योंकि वहाँ परमात्मामें मन लगानेकी मुख्यता है और यहाँ जडताका त्याग करनेकी मुख्यता है। वहाँ तो परमात्माका चिन्तन करते-करते मन सगुण परमात्मामें तल्लीन हो गया तो संसार स्वतः ही छूट गया

और यहाँ अंहता-ममतारूप कल्मषसे अर्थात् संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने ध्येय परमात्मामें स्थित हो गया। इस प्रकार दोनोंका तात्पर्य एक ही हुआ अर्थात् वहाँ परमात्मामें लगनेसे संसार छूट गया और यहाँसंसारको छोड़कर परमात्मामें स्थित हो गया। 'सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते'--उसकी ब्रह्मके साथ जो अभिन्नता होती है, उसमें 'मैं'-पनका संस्कार भी नहीं रहता, सत्ता भी नहीं रहती। यही सुखपूर्वक ब्रह्मका

संस्पर्श करना है। जिस सुखमें अनुभव करनेवाला और अनुभवमें आनेवाला--ये दोनों ही नहीं रहते, वह 'अत्यन्त सुख' है। इस सुखको योगी प्राप्त कर लेता है। यह 'अत्यन्त सुख', 'अक्षय सुख' (5। 21) और 'आत्यन्तिक सुख' (6। 21)--ये एक ही परमात्मतत्त्वरूप आनन्दके वाचक हैं।  सम्बन्ध--अठारहवेंसे तेईसवें श्लोकतक स्वरूपका ध्यान करनेवाले जिस सांख्ययोगीका वर्णन हुआ है, उसके अनुभवका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।

भगवद गीता 6.28 - अध्याय 6 श्लोक 28 हिंदी और अंग्रेजी