एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः। अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।3.16।।
evaṁ pravartitaṁ chakraṁ nānuvartayatīha yaḥ aghāyur indriyārāmo moghaṁ pārtha sa jīvati
Word Meanings
अनुवाद
।।3.16।। हे पार्थ! जो मनुष्य इस लोकमें इस प्रकार परम्परासे प्रचलित सृष्टिचक्रके अनुसार नहीं चलता, वह इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला अघायु (पापमय जीवन बितानेवाला) मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है।
टीका
।।3.16।। व्याख्या--'पार्थ'--नवें श्लोकमें प्रारम्भ किये हुए प्रकरणका उपसंहार करते हुए भगवान् यहाँ अर्जुनके लिये पार्थ सम्बोधन देकर मानो यह कह रहे हैं कि तुम उसी पृथा(कुन्ती) के पुत्र हो जिसने आजीवन कष्ट सहकर भी अपने कर्तव्यका पालन किया था। अतः तुम्हारेसे भी अपने कर्तव्यकी अवहेलना नहीं होनी चाहिये। जिस युद्धको तू घोर कर्म कह रहा है वह तेरे लिये घोर कर्म नहीं प्रत्युत यज्ञ (कर्तव्य) है। इसका पालन करना ही सृष्टिचक्रके अनुसार बरतना है और इसका पालन न करना सृष्टिचक्रके अनुसार न बरतना है।