Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

श्री भगवानुवाच कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः। ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।।11.32।।

śhrī-bhagavān uvācha kālo ’smi loka-kṣhaya-kṛit pravṛiddho lokān samāhartum iha pravṛittaḥ ṛite ’pi tvāṁ na bhaviṣhyanti sarve ye ’vasthitāḥ pratyanīkeṣhu yodhāḥ

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Word Meanings

śhrī-bhagavān uvāchathe Supreme Lord said
kālaḥtime
asmiI am
loka-kṣhaya-kṛitthe source of destruction of the worlds
pravṛiddhaḥmighty
lokānthe worlds
samāhartumannihilation
ihathis world
pravṛittaḥparticipation
ṛitewithout
apieven
tvāmyou
na bhaviṣhyantishall cease to exist
sarveall
yewho
avasthitāḥarrayed
prati-anīkeṣhuin the opposing army
yodhāḥthe warriors
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अनुवाद

।।11.32।। श्रीभगवान् बोले -- मैं सम्पूर्ण लोकोंका क्षय करनेवाला बढ़ा हुआ काल हूँ और इस समय मैं इन सब लोगोंका संहार करनेके लिये यहाँ आया हूँ। तुम्हारे प्रतिपक्षमें जो योद्धालोग खड़े हैं, वे सब तुम्हारे युद्ध किये बिना भी नहीं रहेंगे।

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टीका

।।11.32।। व्याख्या --[भगवान्का विश्वरूप विचार करनेपर बहुत विलक्षण मालूम देता है; क्योंकि उसको देखनेमें अर्जुनकी दिव्यदृष्टि भी पूरी तरहसे काम नहीं कर रही है और वे विश्वरूपको कठिनतासे देखे जानेयोग्य बताते हैं --'दुर्निरीक्ष्यं समन्तात्' (11। 17)। यहाँ भी वे भगवान्से पूछ बैठते हैं कि उग्र रूपवाले आप कौन हैं? ऐसा मालूम देता है कि अगर अर्जुन भयभीत होकर ऐसा नहीं पूछते तो भगवान् और भी अधिक विलक्षणरूपसे प्रकट होते चले जाते। परन्तु अर्जुनके बीचमें ही पूछनेसे भगवान्ने और आगेका रूप दिखाना बन्द कर दिया और अर्जुनके प्रश्नका उत्तर देने लगे।]

भगवद गीता 11.32 - अध्याय 11 श्लोक 32 हिंदी और अंग्रेजी