Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप। अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।9.3।।

aśhraddadhānāḥ puruṣhā dharmasyāsya parantapa aprāpya māṁ nivartante mṛityu-samsāra-vartmani

0:00 / --:--

Word Meanings

aśhraddadhānāḥpeople without faith
puruṣhāḥ(such) persons
dharmasyaof dharma
asyathis
parantapaArjun, conqueror the enemies
aprāpyawithout attaining
māmme
nivartantecome back
mṛityudeath
samsāramaterial existence
vartmaniin the path
•••

अनुवाद

।।9.3।। हे परंतप! इस धर्मकी महिमापर श्रद्धा न रखनेवाले मनुष्य मेरे प्राप्त न होकर मृत्युरूप संसारके मार्गमें लौटते रहते हैं अर्थात् बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं।

•••

टीका

।।9.3।। व्याख्या--'अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य (टिप्पणी प0 486) परंतप'--धर्म दो तरहका होता है--स्वधर्म और परधर्म। मनुष्यका जो अपना स्वतःसिद्ध स्वरूप है, वह उसके लिये स्वधर्म है और प्रकृति तथा प्रकृतिका कार्यमात्र उसके लिये परधर्म है--'संसारधर्मैरविमुह्यमानः'(श्रीमद्भा0 11। 2। 49)। पीछेके दो श्लोकोंमें भगवान्ने जिस विज्ञानसहित ज्ञानको कहनेकी प्रतिज्ञा की और राजविद्या आदि आठ विशेषण देकर जिसका बड़ा

माहात्म्य बताया, उसीको यहाँ 'धर्म' कहा गया है। इस धर्मके माहात्म्यपर श्रद्धा न रखनेवाले अर्थात् उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंको सच्चा मानकर उन्हींमें रचे-पचे रहनेवाले मनुष्योंको यहाँ 'अश्रद्दधानाः' कहा गया है।यह एक बड़े आश्चर्यकी बात है कि मनुष्य अपने शरीरको, कुटुम्बको, धन-सम्पत्ति-वैभवको निःसन्देह-रूपसे उत्पत्ति-विनाशशील और प्रतिक्षण परिवर्तनशील जानते हुए भी उनपर विश्वास करते हैं, श्रद्धा करते हैं,

उनका आश्रय लेते हैं। वे ऐसा विचार नहीं करते कि इन शरीरादिके साथ हम कितने दिन रहेंगे और ये हमारे साथ कितने दिन रहेंगे श्रद्धा तो स्वधर्मपर होनी चाहिये थी, पर वह हो गयी परधर्मपर

भगवद गीता 9.3 - अध्याय 9 श्लोक 3 हिंदी और अंग्रेजी