मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः। राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।।9.12।।
moghāśhā mogha-karmāṇo mogha-jñānā vichetasaḥ rākṣhasīm āsurīṁ chaiva prakṛitiṁ mohinīṁ śhritāḥ
Word Meanings
अनुवाद
।।9.12।। जिनकी सब आशाएँ व्यर्थ होती हैं, सब शुभ-कर्म व्यर्थ होते हैं और सब ज्ञान व्यर्थ होते हैं अर्थात् जिनकी आशाएँ, कर्म और ज्ञान सत्-फल देनेवाले नहीं होते, ऐसे अविवेकी मनुष्य आसुरी, राक्षसी और मोहिनी फकृतिका आश्रय लेते हैं।
टीका
।।9.12।। व्याख्या--'मोघाशाः'-- जो लोग भगवान्से विमुख होते हैं, वे सांसारिक भोग चाहते हैं, स्वर्ग चाहते हैं तो उनकी ये सब कामनाएँ व्यर्थ ही होती हैं। कारण कि नाशवान् और परिवर्तनशील वस्तुकी कामना पूरी होगी ही-- यह कोई नियम नहीं है। अगर कभी पूरी हो भी जाय, तो वह टिकेगी नहीं अर्थात् फल देकर नष्ट हो जायगी। जबतक परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती, तबतक कितनी ही सांसारिक वस्तुओंकी इच्छाएँ की जायँ और उनका फल
भी मिल जाय तो भी वह सब व्यर्थ ही है (गीता 7। 23)।'मोघकर्माणः'--भगवान्से विमुख हुए मनुष्य शास्त्रविहित कितने ही शुभकर्म करें, पर अन्तमें वे सभी व्यर्थ हो जायँगे। कारण कि मनुष्य अगर सकामभावसे शास्त्रविहित यज्ञ, दान आदि कर्म भी करेंगे, तो भी उन कर्मोंका आदि और अन्त होगा और उनके फलका भी आदि और अन्त होगा। वे उन कर्मोंके फलस्वरूप ऊँचे-ऊँचे लोकोंमें भी चले जायँगे, तो भी वहाँसे उनको फिर जन्म-मरणमें आना ही
पड़ेगा। इसलिये उन्होंने कर्म करके केवल अपना समय बरबाद किया, अपनी बुद्धि बरबाद की और मिला कुछ नहीं। अन्तमें रीते-के-रीते रह गये अर्थात् जिसके लिये मनुष्यशरीर मिला था, उस लाभसे सदा ही रीते रह गये। इसलिये उनके सब कर्म व्यर्थ, निष्फल ही हैं।तात्पर्य यह हुआ कि ये मनुष्य स्वरूपसे साक्षात् परमात्माके अंश हैं, सदा रहनेवाले हैं और कर्म तथा उनका,फल आदि-अन्तवाला है; अतः जबतक परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी, तबतक
वे सकामभावपूर्वक कितने ही कर्म करें और उनका फल भोंगे, पर अन्तमें दुःख और अशान्तिके सिवाय कुछ नहीं मिलेगा। जो शास्त्रविहित कर्म अनुकूल परिस्थिति प्राप्त करनेकी इच्छासे सकामभावपूर्वक किये जाते हैं, वे ही कर्म व्यर्थ होते हैं अर्थात् सत्-फल देनेवाले नहीं होते। परन्तु जो कर्म भगवान्के लिये, भगवान्की प्रसन्नताके लिये किये जाते हैं और जो कर्म भगवान्के अर्पण किये जाते हैं, वे कर्म निष्फल नहीं होते अर्थात् नाशवान् फल देनेवाले नहीं होते, प्रत्युत सत्-फल देनेवाले हो जाते हैं-- 'कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते'(गीता 17। 27)।