Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः। प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः।।7.30।।

sādhibhūtādhidaivaṁ māṁ sādhiyajñaṁ cha ye viduḥ prayāṇa-kāle ’pi cha māṁ te vidur yukta-chetasaḥ

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Word Meanings

sa-adhibhūtagoverning principle of the field of matter
adhidaivamgoverning principle of the celestial gods
māmme
sa-adhiyajñamgoverning principle of the Lord all sacrificial performances
chaand
yewho
viduḥknow
prayāṇaof death
kāleat the time
apieven
chaand
māmme
tethey
viduḥknow
yukta-chetasaḥin full consciousness of me
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अनुवाद

।।7.30।। जो मनुष्य अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञके सहित मुझे जानते हैं, वे युक्तचेता मनुष्य अन्तकालमें भी मुझे ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं।

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टीका

।।7.30।। व्याख्या--'साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः'--[पूर्वश्लोकमें निर्गुणनिराकारको जाननेका वर्णन करके अब सगुणसाकारको जाननेकी बात कहते हैं।]यहाँ अधिभूत नाम भौतिक स्थूल सृष्टिका है जिसमें तमोगुणकी प्रधानता है। जितनी भी भौतिक सृष्टि है उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। उसका क्षणमात्र भी स्थायित्व नहीं है। फिर भी यह भौतिक सृष्टि सत्य दीखती है अर्थात् इसमें सत्यता स्थिरता सुखरूपता श्रेष्ठता और आकर्षण

दीखता है। यह सत्यता आदि सबकेसब वास्तवमें भगवान्के ही हैं क्षणभङ्गुर संसारके नहीं। तात्पर्य है कि जैसे बर्फकी सत्ता जलके बिना नहीं हो सकती ऐसे ही भौतिक स्थूल सृष्टि अर्थात् अधिभूतकी सत्ता भगवान्के बिना नहीं हो सकती। इस प्रकार तत्त्वसे यह संसार भगवत्स्वरूप ही है ऐसा जानना ही अधिभूतके सहित भगवान्को जानना है।अधिदैव नाम सृष्टिकी रचना करनेवाले हिरण्यगर्भ ब्रह्माजीका है जिनमें रजोगुणकी प्रधानता है। भगवान्

ही ब्रह्माजीके रूपमें प्रकट होते हैं अर्थात् तत्त्वसे ब्रह्माजी भगवत्स्वरूप ही हैं ऐसा जानना ही अधिदैवके सहित भगवान्को जानना है।अधियज्ञ नाम भगवान् विष्णुका है जो अन्तर्यामीरूपसे सबमें व्याप्त हैं और जिनमें सत्त्वगुणकी प्रधानता है। तत्त्वसे भगवान् ही अन्तर्यामीरूपसे सबमें परिपूर्ण हैं ऐसा जानना ही अधियज्ञके सहित भगवान्को जानना है।अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञके सहित भगवान्को जाननेका तात्पर्य है कि भगवान्

श्रीकृष्णके शरीरके किसी एक अंशमें विराट्रूप है (गीता 10। 42 11। 7) और उस विराट्रूपमें अधिभूत (अनन्त ब्रह्माण्ड) अधिदैव (ब्रह्माजी) और अधियज्ञ (विष्णु) आदि सभी हैं जैसा कि अर्जुनने कहा है हे देव मैं आपके शरीरमें सम्पूर्ण प्राणियोंको जिनकी नाभिसे कमल निकला है उन विष्णुको कमलपर विराजमान ब्रह्मको और शंकर आदिको देख रहा हूँ (गीता 11। 15)। अतः तत्त्वसे अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। श्रीकृष्ण

ही समग्र भगवान् हैं।'प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः'--जो संसारके भोगों और संग्रहकी प्राप्तिअप्राप्तिमें समान रहनेवाले हैं तथा संसारसे सर्वथा उपरत होकर भगवान्में लगे हुए हैं वे पुरुष युक्तचेता हैं। ऐसे युक्तचेता मनुष्य अन्तकालमें भी मेरेको ही जानते हैं अर्थात् अन्तकालकी पीड़ा आदिमें भी वे मेरेमें ही अटलरूपसे स्थित रहते हैं। उनकी ऐसी दृढ़ स्थिति होती है कि वे स्थूल और सूक्ष्मशरीरमें कितनी ही

हलचल होनेपर भी कभी किञ्चिन्मात्र भी विचलित नहीं होते। भगवान्के समग्ररूपसम्बन्धी विशेष बात (1) प्रकृति और प्रकृतिके कार्य क्रिया पदार्थ आदिके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे ही सभी विकार पैदा होते हैं और उन क्रिया पदार्थ आदिकी प्रकटरूपसे सत्ता दीखने लग जाती है। परन्तु प्रकृति और प्रकृतिके कार्यसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद करके भगवत्स्वरूपमें स्थित होनेसे उनकी स्वतन्त्र सत्ता उस भगवत्तत्त्वमें ही लीन हो जाती

है। फिर उनकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं दीखती।जैसे किसी व्यक्तिके विषयमें हमारी जो अच्छे और बुरेकी मान्यता है वह मान्यता हमारी ही की हुई है। तत्त्वसे तो वह व्यक्ति भगवान्का स्वरूप है अर्थात् उस व्यक्तिमें तत्त्वके सिवाय दूसरा कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व ही नहीं है। ऐसे ही संसारमें यह ठीक है यह बेठीक है इस प्रकार ठीकबेठीककी मान्यता हमारी ही की हुई है। तत्त्वसे तो संसार भगवान्का स्वरूप ही है। हाँ संसारमें

जो वर्णआश्रमकी मर्यादा है ऐसा काम करना चाहिये और ऐसा नहीं करना चाहिये यह जो विधिनिषेधकी मर्यादा है इसको महापुरुषोंने जीवोंके कल्याणार्थ व्यवहारके लिये मान्यता दी है।जब यह भौतिक सृष्टि नहीं थी तब भी भगवान् थे और इसके लीन होनेपर भी भगवान् रहेंगे इस तरहसे जब वास्तविक भगवत्तत्त्वका बोध हो जाता है तब भौतिक सृष्टिकी सत्ता भगवान्में ही लीन हो जाती है अर्थात् इस सृष्टिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती। इसका यह

तात्पर्य नहीं है कि संसारकी स्वतन्त्र सत्ता न रहनेपर संसार मिट जाता है उसका अभाव हो जाता है प्रत्युत अन्तःकरणमें सत्यत्वेन जो संसारकी सत्ता और महत्ता बैठी हुई थी जो कि जीवके कल्याणमें बाधक थी वह नहीं रहती। जैसे सोनेके गहनोंकी अनेक तरहकी आकृति और अलगअलग उपयोग होनेपर भी उन सबमें एक ही सोना है ऐसे ही भगवद्भक्तके द्वारा अनेक तरहका यथायोग्य सांसारिक व्यवहार होनेपर भी उन सबमें एक ही भगवत्तत्त्व है ऐसी अटलबुद्धि

रहती है। इस तत्त्वको समझनेके लिये ही उन्तीसवें और तीसवें श्लोकमें समग्ररूपका वर्णन हुआ है।(2) उपासनाकी दृष्टिसे भगवान्के प्रायः दो रूपोंका विशेष वर्णन आता है एक सगुण और एक निर्गुण। इनमें सगुणके दो भेद होते हैं एक सगुणसाकार और एक सगुणनिराकार। परन्तु निर्गुणके दो भेद नहीं होते निर्गुण निराकार ही होता है। हाँ निराकारके दो भेद होते हैं एक सगुणनिराकार और एक निर्गुणनिराकार।उपासना करनेवाले दो रुचिके होते

हैं एक सगुणविषयक रुचिवाला होता है और एक निर्गुणविषयक रुचिवाला होता है। परन्तु इन दोनोंकी उपासना भगवान्के सगुणनिराकार रूपसे ही शुरू होती है जैसे परमात्मप्राप्तिके लिये कोई भी साधक चलता है तो वह पहले परमात्मा है इस प्रकार परमात्माकी सत्ताको मानता है और वे परमात्मा सबसे श्रेष्ठ हैं सबसे दयालु हैं उनसे बढ़कर कोई है नहीं ऐसे भाव उसके भीतर रहते हैं तो उपासना सगुणनिराकारसे ही शुरू हुई। इसका कारण यह है कि

बुद्धि प्रकृतिका कार्य (सगुण) होनेसे निर्गुणको पकड़ नहीं सकती। इसलिये निर्गुणके उपासकका लक्ष्य तो निर्गुणनिराकार होता है पर बुद्धिसे वह सगुणनिराकारका ही चिन्तन करता है (टिप्पणी प0 445)।सगुणकी ही उपासना करनेवाले पहले सगुणसाकार मानकर उपासना करते हैं। परन्तु मनमें जबतक साकाररूप दृढ़ नहीं होता तबतक प्रभु हैं और वे मेरे सामने हैं ऐसी मान्यता मुख्य होती है। इस मान्यतामें सगुण भगवान्की अभिव्यक्ति जितनी अधिक

होती है उतनी ही उपासना ऊँची मानी जाती है। अन्तमें जब वह सगुणसाकाररूपसे भगवान्के दर्शन भाषण स्पर्श और प्रसाद प्राप्त कर लेता है तब उसकी उपासनाकी पूर्णता हो जाती है।निर्गुणकी उपासना करनेवाले परमात्माको सम्पूर्ण संसारमें व्यापक समझते हुए चिन्तन करते हैं। उनकी वृत्ति जितनी ही सूक्ष्म होती चली जाती है उतनी ही उनकी उपासना ऊँची मानी जाती है। अन्तमें सांसारिक आसक्ति और गुणोंका सर्वथा त्याग होनेपर जब मैं तू

आदि कुछ भी नहीं रहता केवल चिन्मयतत्त्व शेष रह जाता है तब उसकी उपासनाकी पूर्णता हो जाती है।इस प्रकार दोनोंकी अपनीअपनी उपासनाकी पूर्णता होनेपर दोनोंकी एकता हो जाती है अर्थत् दोनों एक हीतत्त्वको प्राप्त हो जाते हैं (टिप्पणी प0 446.1)। सगुणसाकारके उपासकोंको तो भगवत्कृपासे निर्गुणनिराकारका भी बोध हो जाता है मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा।।(मानस 3। 36। 5) निर्गुणनिराकारके उपासकमें यदि भक्तिके

संस्कार हैं और भगवान्के दर्शनकी अभिलाषा है तो उसे भगवान्के दर्शन हो जाते हैं अथवा भगवान्को उससे कुछ काम लेना होता है तो भगवान् अपनी तरफसे भी दर्शन दे सकते हैं। जैसे निर्गुणनिराकारके उपासक मधुसूदनाचार्यजीको भगवान्ने अपनी तरफसे दर्शन दिये थे (टिप्पणी प0 446.2)।(3) वास्तवमें परमात्मा सगुणनिर्गुण साकारनिराकार सब कुछ हैं। सगुणनिर्गुण तो उनके विशेषण हैं नाम हैं। साधक परमात्माको गुणोंके सहित मानता है तो

उसके लिये वे सगुण हैं और साधक उनको गुणोंसे रहित मानता है तो उसके लिये वे निर्गुण हैं। वास्तवमें परमात्मा सगुण तथा निर्गुण दोनों हैं और दोनोंसे परे भी हैं। परन्तु इस वास्तविकताका पता तभी लगता है जब बोध होता है।भगवान्के सौन्दर्य माधुर्य ऐश्वर्य औदार्य आदि जो दिव्य गुण हैं उन गुणोंके सहित सर्वत्र व्यापक परमात्माको सगुण कहते हैं। इस सगुणके दो भेद होते हैं

भगवद गीता 7.30 - अध्याय 7 श्लोक 30 हिंदी और अंग्रेजी