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ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।5.10।।

brahmaṇyādhāya karmāṇi saṅgaṁ tyaktvā karoti yaḥ lipyate na sa pāpena padma-patram ivāmbhasā

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Word Meanings

brahmaṇito God
ādhāyadedicating
karmāṇiall actions
saṅgamattachment
tyaktvāabandoning
karotiperforms
yaḥwho
lipyateis affected
nanever
saḥthat person
pāpenaby sin
padma-patrama lotus leaf
ivalike
ambhasāby water
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अनुवाद

।।5.10।। जो (भक्तियोगी) सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान् में अर्पण करके और आसक्तिका त्याग करके कर्म करता है, वह जलसे कमलके पत्तेकी तरह पापसे लिप्त नहीं होता।

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टीका

5.10।। व्याख्या--'ब्रह्मण्याधाय कर्माणि'--शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदि सब भगवान्के ही हैं, अपने हैं ही नहीं; अतः इनके द्वारा होनेवाली क्रियाओँको भक्तियोगी अपनी कैसे मान सकता है? इसलिये उसका यह भाव रहता है कि मात्र क्रियाएँ भगवान्के द्वारा ही हो रही हैं और भगवान्के लिये ही हो रही हैं; मैं तो निमित्तमात्र हूँ।भगवान् ही अपनी इन्द्रियोंके द्वारा आप ही सम्पूर्ण क्रियाएँ करते हैं--इस बातको ठीक-ठीक

धारण करके सम्पूर्ण क्रियाओंके कर्तापनको भगवान्में ही मानना, यही उपर्युक्त पदोंका अर्थ है।शरीरादि वस्तुएँ अपनी हैं ही नहीं, प्रत्युत मिली हुई हैं और बिछुड़ रही हैं। ये केवल भगवान्के नाते, भगवत्प्रीत्यर्थ दूसरोंकी सेवा करनेके लिये मिली हैं। इन वस्तुओँपर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं है अर्थात् इनको अपने इच्छानुसार न तो रख सकते हैं, न बदल सकते हैं और न मरनेपर साथ ही ले जा सकते हैं। इसलिये इन शरीरादिको

तथा इनसे होनेवाली क्रियाओँको अपनी मानना ईमानदारी नहीं है। अतः मनुष्यको ईमानदारीके साथ जिसकी ये वस्तुएँ हैं ,उसीकी अर्थात् भगवान्की मान लेनी चाहिये।सम्पूर्ण क्रियाओँ और पदार्थोंको कर्मयोगी 'संसार' के, ज्ञानयोगी 'प्रकृति' के और भक्तियोगी 'भगवान्' के अर्पण करता है। प्रकृति और संसार--दोनोंके ही स्वामी भगवान् हैं। अतः क्रियाओँ और पदार्थोंको भगवान्के अर्पण करना ही श्रेष्ठ है।

भगवद गीता 5.10 - अध्याय 5 श्लोक 10 हिंदी और अंग्रेजी