कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः। लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।3.20।। यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।3.21।।
karmaṇaiva hi sansiddhim āsthitā janakādayaḥ loka-saṅgraham evāpi sampaśhyan kartum arhasi yad yad ācharati śhreṣhṭhas tat tad evetaro janaḥ sa yat pramāṇaṁ kurute lokas tad anuvartate
Word Meanings
अनुवाद
।।3.20।। राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी कर्मके द्वारा ही परमसिद्धिको प्राप्त हुए हैं। इसलिये लोकसंग्रहको देखते हुए भी तू (निष्कामभावसे) कर्म करनेके योग्य है। ।।3.21।। श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसीके अनुसार आचरण करते हैं।
टीका
।।3.20।। व्याख्या--'कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः'--'आदि' पद 'प्रभृति' (आरम्भ) तथा 'प्रकार' दोनोंका वाचक माना जाता है। यदि यहाँ आये 'आदि' पदको 'प्रभृति' का वाचक माना जाय तो 'जनकादयः' पदका अर्थ होगा--जिनके आदि-(आरम्भ-) में राजा जनक हैं अर्थात् राजा जनक तथा उनके बादमें होनेवाले महापुरुष। परन्तु यहाँ ऐसा अर्थ मानना ठीक नहीं प्रतीत होता; क्योंकि राजा जनकसे पहले भी अनेक महापुरुष कर्मोंके द्वारा परमसिद्धिको
प्राप्त हो चुके थे; जैसे सूर्य, वैवस्वत मनु, राजा इक्ष्वाकु आदि (गीता 4। 12)। इसलिये यहाँ 'आदि' पदको 'प्रकार' का वाचक मानना ही उचित है, जिसके अनुसार 'जनकादयः'पदका अर्थ है--राजा जनक-जैसे गृहस्थाश्रममें रहकर निष्कामभावसे सब कर्म करते हुए परमसिद्धिको प्राप्त हुए महापुरुष, जो राजा जनकसे पहले तथा बादमें (आजतक) हो चुके हैं।कर्मयोग बहुत पुरातन योग है, जिसके द्वारा राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष परमात्माको प्राप्त
हो चुके हैं। अतः वर्तमानमें तथा भविष्यमें भी यदि कोई कर्मयोगके द्वारा परमात्माको प्राप्त करना चाहे तो उसे चाहिये कि वह मिली हुई प्राकृत वस्तुओं-(शरीरादि-) को कभी अपनी और अपने लिये न माने। कारण कि वास्तवमें वे अपनी और अपने लिये हैं ही नहीं, प्रत्युत संसारकी और संसारके लिये ही हैं। इस वास्तविकताको मानकर संसारसे मिली वस्तुओंको संसारकी ही सेवामें लगा देनेसे सुगमतापूर्वक संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होकर परमात्मप्राप्ति
हो जाती है। इसलिये कर्मयोग परमात्मप्राप्तिका सुगम, श्रेष्ठ और स्वतन्त्र साधन है--इसमें कोई सन्देह नहीं। यहाँ 'कर्मणा एव' पदोंका सम्बन्ध पूर्वश्लोकके 'असक्तो ह्याचरन्कर्म' पदोंसे अर्थात् आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे है; क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे ही मनुष्य कर्मबन्धनसे मुक्त होता है, केवल कर्म करनेसे नहीं। केवल कर्म करनेसे तो प्राणी बँधता है--'कर्मणा बध्यते जन्तुः' (महा0 शान्ति0 241। 7)।गीताकी
यह शैली है कि भगवान् पीछेके श्लोकमें वर्णित विषयकी मुख्य बातको (जो साधकोंके लिये विशेष उपयोगी होती है) संक्षेपसे आगेके श्लोकमें पुनः कह देते हैं, जैसे पीछेके (उन्नीसवें) श्लोकमें आसक्तिरहित होकर कर्म करनेकी आज्ञा देकर इस बीसवें श्लोकमें उसी बातको संक्षेपसे 'कर्मणा एव' पदोंसे कहते हैं। इसी प्रकार आगे बारहवें अध्यायके छठे श्लोकमें वर्णित विषयकी मुख्य बातको सातवें श्लोकमें संक्षेपसे 'मय्यावेशितचेतसाम्'
(मुझमें चित्त लगानेवाले भक्त) पदसे पुनः कहेंगे।यहाँ भगवान् 'कर्मणा एव' के स्थानपर 'योगेन एव' भी कह सकते थे। परन्तु अर्जुनका आग्रह कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेका होने तथा (आसक्तिरहित होकर किये जानेवाले) कर्मका ही प्रसङ्ग चलनेके कारण 'कर्मणा एव' पदोंका प्रयोग किया गया है। अतः यहाँ इन पदोंका अभिप्राय (पूर्वश्लोकके अनुसार) आसक्तिरहित होकर किये गये कर्मयोगसे ही है।वास्तवमें चिन्मय परमात्माकी प्राप्ति जड
कर्मोंसे नहीं होती। नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव होनेमें जो बाधाएँ हैं, वे आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे दूर हो जाती हैं। फिर सर्वत्र परिपूर्ण स्वतःसिद्ध परमात्माका अनुभव हो जाता है। इस प्रकार परमात्मतत्त्वके अनुभवमें आनेवाली बाधाओंको दूर करनेके कारण यहाँ कर्मके द्वारा परमसिद्धि(परमात्मतत्त्व) की प्राप्तिकी बात कही गयी है। 3.21।। व्याख्या--'यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः'-- श्रेष्ठ पुरुष वही
है, जो संसार-(शरीरादि पदार्थों-) को और 'स्वयं'-(अपने स्वरूप-) को तत्त्वसे जानता है। उसका यह स्वाभाविक अनुभव होता है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, धन, कुटुम्ब, जमीन आदि पदार्थ संसारके हैं, अपने नहीं। इतना ही नहीं, वह श्रेष्ठ पुरुष त्याग, वैराग्य, प्रेम, ज्ञान, सद्गुण आदिको भी अपना नहीं मानता; क्योंकि उन्हें भी अपना माननेसे व्यक्तित्व पुष्ट होता है, जो तत्त्वप्राप्तिमें बाधक है। 'मैं त्यागी हूँ',
'मैं वैरागी हूँ', 'मैं सेवक हूँ', 'मैं भक्त हूँ' आदि भाव भी व्यक्तित्वको पुष्ट करनेवाले होनेके कारण तत्त्वप्राप्तिमें बाधक होते हैं। श्रेष्ठ पुरुषमें (जडताके सम्बन्धसे होनेवाला) 'व्यष्टि अहंकार' तो होता ही नहीं, और 'समष्टि अहंकार' व्यवहारमात्रके लिये होता है, जो संसारकी सेवामें लगा रहता है; क्योंकि अहंकार भी संसारका ही है (गीता 7। 4 13। 5)। संसारसे मिले हुए शरीर, धन, परिवार, पद, योग्यता, अधिकार आदि
सब पदार्थ सदुपयोग करने अर्थात् दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये ही मिले हैं; उपभोग करने अथवा अपना अधिकार जमानेके लिये नहीं। जो इन्हें अपना और अपने लिये मानकर इनका उपभोग करता है, उसको भगवान् चोर कहते हैं-- 'यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः' (गीता 3। 12)। ये सब पदार्थ समष्टिके ही हैं, व्यष्टिके कभी किसी प्रकार नहीं। वास्तवमें इन पदार्थोंसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। श्रेष्ठ पुरुषके अपने कहलानेवाले शरीरादि पदार्थ
(संसारके होनेसे) स्वतः-स्वाभाविक संसारकी सेवामें लगते हैं। सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। 'देने' के भावसे समाजमें एकता, प्रेम उत्पन्न होता है और 'लेने' के भावसे संघर्ष उत्पन्न होता है। 'देने' का भाव उद्धार करनेवाला और 'लेने' का भाव पतन करनेवाला होता है। शरीरको 'मैं', 'मेरा' अथवा 'मेरे लिये' माननेसे ही 'लेने' का भाव उत्पन्न होता है। शरीरसे अपना कोई सम्बन्ध न माननेके कारण
श्रेष्ठ पुरुषमें 'लेने' का भाव किञ्चिन्मात्र भी नहीं होता। अतः उसकी प्रत्येक क्रिया दूसरोंका हित करनेवाली ही होती है। ऐसे श्रेष्ठ पुरुषके दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप, चिन्तन आदिसे स्वतः लोगोंका हित होता है। इतना ही नहीं, उसके शरीरको स्पर्श करके बहनेवाली वायुतकसे लोगोंका हित होता है।