Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

श्री भगवानुवाच प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।

śhrī bhagavān uvācha prajahāti yadā kāmān sarvān pārtha mano-gatān ātmany-evātmanā tuṣhṭaḥ sthita-prajñas tadochyate

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Word Meanings

śhrī-bhagavān uvāchaThe Supreme Lord said
prajahātidiscards
yadāwhen
kāmānselfish desires
sarvānall
pārthaArjun, the son of Pritha
manaḥ-gatānof the mind
ātmaniof the self
evaonly
ātmanāby the purified mind
tuṣhṭaḥsatisfied
sthita-prajñaḥone with steady intellect
tadāat that time
uchyateis said
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अनुवाद

।।2.55।। श्रीभगवान् बोले - हे पृथानन्दन ! जिस कालमें साधक मनोगत सम्पूर्ण कामनाओंका अच्छी तरह त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।  

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टीका

2.55।। व्याख्या-- [गीताकी यह एक शैली है कि जो साधक जिस साधन (कर्मयोग, भक्तियोग आदि) के द्वारा सिद्ध होता है, उसी साधनसे उसकी पूर्णताका वर्णन किया जाता है। जैसे, भक्तियोगमें साधक भगवान्के सिवाय और कुछ है ही नहीं--ऐसे अनन्य-योगसे उपासना करता है (12। 6) अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें द्वेष-भावसे रहित हो जाता है (12। 13)। ज्ञानयोगमें साधक स्वयंको गुणोंसे सर्वथा असम्बद्ध एवं निर्लिप्त देखता

है (14। 19) अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण गुणोंसे सर्वथा अतीत हो जाता है (14। 22--25)। ऐसे ही कर्मयोगमें कामनाके त्यागकी बात मुख्य कही गयी है; अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता है--यह बात इस श्लोकमें बताते हैं]।  'प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्'-- इन पदोंका तात्पर्य यह हुआ कि कामना न तो स्वयंमें है और न मनमें ही है। कामना तो आने-जानेवाली है और स्वयं निरन्तर रहनेवाला

है; अतः स्वयंमें कामना कैसे हो सकती है? मन एक करण है और उसमें भी कामना निरन्तर नहीं रहती, प्रत्युत उसमें आती है-- 'मनोगतान्'  अतः मनमें भी कामना कैसे हो सकती है परन्तु शरीर-इन्द्रयाँ-मन-बुद्धिसे तादात्म्य होनेके कारण मनुष्य मनमें आनेवाली कामनाओंको अपनेमें मान लेता है।  'जहाति'  क्रियाके साथ  'प्र' उपसर्ग देनेका तात्पर्य है कि साधक कामनाओंका सर्वथा त्याग कर देता है, किसी भी कामनाका कोई भी अंश किञ्चिन्मात्र

भी नहीं रहता। अपने स्वरूपका कभी त्याग नहीं होता और जिससे अपना कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, उसका भी त्याग नहीं होता। त्याग उसीका होता है, जो अपना नहीं है, पर उसको अपना मान लिया है। ऐसे ही कामना अपनेमें नहीं है, पर उसको अपनेमें मान लिया है। इस मान्यताका त्याग करनेको ही यहाँ  'प्रजहाति'  पदसे कहा गया है। यहाँ  'कामान्'  शब्दमें बहुवचन होनेसे  'सर्वान्'  पद उसीके अन्तर्गत आ जाता है, फिर भी  सर्वान्  पद देनेका

तात्पर्य है कि कोई भी कामना न रहे और किसी भी कामनाका कोई भी अंश बाकी न रहे।  'आत्मन्येवात्मना तुष्टः'   जिस कालमें सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है अर्थात् अपनेआपमें सहज स्वाभाविक सन्तोष होता है। सन्तोष दो तरहका होता है--एक सन्तोष गुण है और एक सन्तोष स्वरूप है। अन्तःकरणमें किसी प्रकारकी कोई भी इच्छा न हो--यह सन्तोष गुण है; और स्वयंमें असन्तोषका अत्यन्ताभाव

है--यह सन्तोष स्वरूप है। यह स्वरुपभूत सन्तोष स्वतः सर्वदा रहता है। इसके लिये कोई अभ्यास या विचार नहीं करना पड़ता। स्वरूपभूत सन्तोषमें प्रज्ञा (बुद्धि) स्वतः स्थिर रहती है।  'स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते'  स्वयं जब बहुशाखाओंवाली अनन्त कामनाओंको अपनेमें मानता था, उस समय भी वास्तवमें कामनाएँ अपनेमें नहीं थीं और स्वयं स्थितप्रज्ञ ही था। परन्तु उस समय अपनेमें कामनाएँ माननेके कारण बुद्धि स्थिर न होनेसे वह स्थितप्रज्ञ

नहीं कहा जाता था अर्थात उसको अपनी स्थितप्रज्ञताका अनुभव नहीं होता था। अब उसने अपनेमें से सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर दिया अर्थात् उनकी मान्यताको हटा दिया, तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है अर्थात् उसको अपनी स्थितप्रज्ञताका अनुभव हो जाता है। साधक तो बुद्धिको स्थिर बनाता है। परन्तु कामनाओंका सर्वथा त्याग होनेपर बुद्धिको स्थिर बनाना नहीं पड़ता, वह स्वतःस्वाभाविक स्थिर हो जाती है। कर्मयोगमें साधकका कर्मोंसे ज्यादा सम्बन्ध रहता है। उसके लिये योगमें आरूढ़ होनेमें भी कर्म कारण हैं

भगवद गीता 2.55 - अध्याय 2 श्लोक 55 हिंदी और अंग्रेजी