Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके। तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।2.46।।

yāvān artha udapāne sarvataḥ samplutodake tāvānsarveṣhu vedeṣhu brāhmaṇasya vijānataḥ

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Word Meanings

yāvānwhatever
arthaḥpurpose
uda-pānea well of water
sarvataḥin all respects
sampluta-udakeby a large lake
tāvānthat many
sarveṣhuin all
vedeṣhuVedas
brāhmaṇasyaone who realizes the Absolute Truth
vijānataḥwho is in complete knowledge
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अनुवाद

।।2.46।। सब तरफसे परिपूर्ण महान् जलाशयके प्राप्त होनेपर छोटे गड्ढों में भरे जल में मनुष्यका जितना प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता, वेदों और शास्त्रोंको तत्त्वसे जाननेवाले ब्रह्मज्ञानीका सम्पूर्ण वेदोंमें उतना ही प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता।  

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टीका

2.46।। व्याख्या-- 'यावनार्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके'-- जलसे सर्वथा परिपूर्ण, स्वच्छ, निर्मल महान् सरोवरके प्राप्त होनेपर मनुष्यको छोटे-छोटे जलाशयोंकी कुछ भी आवश्यकता नहीं रहती। कारण कि छोटे-से जलाशयमें अगर हाथ-पैर धोये जायँ तो उसमें मिट्टी घुल जानेसे वह जल स्नानके लायक नहीं रहता; और अगर उसमें स्नान किया जाय तो वह जल कपड़े धोनेके लायक नहीं रहता और यदि उसमें कपड़े धोये जायँ तो वह जल पीनेके लायक

नहीं रहता। परन्तु महान् सरोवरके मिलनेपर उसमें सब कुछ करनेपर भी उसमें कुछ भी फरकनहीं पड़ता अर्थात् उसकी स्वच्छता, निर्मलता, पवित्रता वैसी-की-वैसी ही बनी रहती है।  'तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः'-- ऐसे ही जो महापुरुष परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो गये हैं उनके लिये वेदोंमें कहे हुए यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि जितने भी पुण्यकारी कार्य हैं, उन सबसे उनका कोई मतलब नहीं रहता अर्थात् वे पुण्यकारी

कार्य उनके लिये छोटे-छोटे जलाशयोंकी तरह हो जाते हैं। ऐसा ही दृष्टान्त आगे सत्तरवें श्लोकमें दिया है कि वह ज्ञानी महात्मा समुद्रकी तरह गम्भीर होता है। उसके सामने कितने ही भोग आ जायँ पर वे उसमें कुछ भी विकृति पैदा नहीं कर सकते। जो परमात्मतत्त्वको जाननेवाला है, और वेदों तथा शास्त्रोंके तत्त्वको भी जाननेवाला है उस महापुरुषको यहाँ  'ब्राह्मणस्य विजानतः'  पदोंसे कहा गया है।  'तावान्''  कहनेका तात्पर्य है

कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर वह तीनों गुणोंसे रहित हो जाता है। वह निर्द्वन्द्व हो जाता है अर्थात् उसमें राग-द्वेष आदि नहीं रहते। वह नित्य तत्त्वमें स्थित हो जाता है। वह निर्योगक्षेम हो जाता है अर्थात् कोई वस्तु मिल जाय और मिली हुई वस्तुकी रक्षा होती रहे--ऐसा उसमें भाव भी नहीं होता। वह सदा ही परमात्मपरायण रहता है।

भगवद गीता 2.46 - अध्याय 2 श्लोक 46 हिंदी और अंग्रेजी