यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।18.5।।
yajña-dāna-tapaḥ-karma na tyājyaṁ kāryam eva tat yajño dānaṁ tapaśh chaiva pāvanāni manīṣhiṇām
Word Meanings
अनुवाद
।।18.5।।यज्ञ, दान और तपरूप कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उनको तो करना ही चाहिये क्योंकि यज्ञ, दान और तप -- ये तीनों ही कर्म मनीषियोंको पवित्र करनेवाले हैं।
टीका
।।18.5।। व्याख्या -- यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् -- यहाँ भगवान्ने दूसरोंके मत (18। 3) को ठीक बताया है। भगवान् कठोर शब्दोंसे किसीके मतका खण्डन नहीं करते। आदर देनेके लिये भगवान् दूसरेके मतका वास्तविक अंश ले लेते हैं और उसमें अपना मत भी शामिल कर देते हैं। यहाँ भगवान्ने दूसरेके मतके अनुसार कहा कि यज्ञ? दान और तपरूप कर्म छोड़ने नहीं चाहिये। इसके साथ भगवान्ने अपना मत बताया कि इतना ही नहीं?
प्रत्युत उनको न करते हों तो जरूर करना चाहिये -- कार्यमेव तत्। कारण कि यज्ञ? दान और तप -- तीनों कर्म मनीषियोंको पवित्र करनेवाले हैं।यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् -- यहाँ चैव पदका तात्पर्य है कि नित्य? नैमित्तिक? जीविकासम्बन्धी? शरीरसम्बन्धी आदि जितने भी कर्तव्यकर्म हैं? उनको भी जरूर करना चाहिये क्योंकि वे भी मनीषियोंको पवित्र करनेवाले हैं।,जो मनुष्य समत्वबुद्धिसे युक्त होकर कर्मजन्य फलका त्याग
कर देते हैं? वे मनीषी हैं -- कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः (गीता 2। 51)। ऐसे मनीषियोंको वे यज्ञादि कर्म पवित्र करते हैं। परन्तु जो वास्तवमें मनीषी नहीं हैं? जिनकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं अर्थात् अपने सुखभोगके लिये ही जो यज्ञ? दानादि कर्म करते हैं? उनको वे कर्म पवित्र नहीं करते? प्रत्युत वे कर्म बन्धनकारक हो जाते हैं।इस श्लोकके पूर्वार्धमें यज्ञदानतपःकर्म -- ऐसा समासयुक्त पद दिया
है और उत्तरार्धमें यज्ञो दानं तपः -- ऐसे अलगअलग पद दिये हैं? इसका तात्पर्य है कि भगवान्ने समासयुक्त पदसे यह बताया है कि यज्ञ? दान और तपका त्याग नहीं करना चाहिये? प्रत्युत इनको जरूर करना चाहिये और अलगअलग पदोंसे यह बताया है,कि इनमेंसे एकएक कर्म भी मनीषीको पवित्र करनेवाला है।