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तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत।।14.8।।

tamas tv ajñāna-jaṁ viddhi mohanaṁ sarva-dehinām pramādālasya-nidrābhis tan nibadhnāti bhārata

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Word Meanings

tamaḥmode of ignorance
tubut
ajñāna-jamborn of ignorance
viddhiknow
mohanamillusion
sarva-dehināmfor all the embodied souls
pramādanegligence
ālasyalaziness
nidrābhiḥand sleep
tatthat
nibadhnātibinds
bhārataArjun, the son of Bharat
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अनुवाद

।।14.8।।हे भरतवंशी अर्जुन ! सम्पूर्ण देहधारियोंको मोहित करनेवाले तमोगुणको तुम अज्ञानसे उत्पन्न होनेवाला समझो। वह प्रमाद, आलस्य और निद्राके द्वारा देहधारियोंको बाँधता है।

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टीका

।।14.8।। व्याख्या --   तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् -- सत्त्वगुण और रजोगुण -- इन दोनोंसे तमोगुणको अत्यन्त निकृष्ट बतानेके लिये यहाँ तु पदका प्रयोग हुआ है।यह तमोगुण अज्ञानसे अर्थात् बेसमझीसे? मूर्खतासे पैदा होता है और सम्पूर्ण देहधारियोंको मोहित कर देता है अर्थात् सत्असत्? कर्तव्यअकर्तव्यका ज्ञान (विवेक) नहीं होने देता। इतना ही नहीं? यह सांसारिक सुखभोग,और संग्रहमें भी नहीं लगने देता अर्थात्

राजस सुखमें भी नहीं जाने देता? फिर सात्त्विक सुखकी तो बात ही क्या हैवास्तवमें तमोगुणके द्वारा मोहित होनेकी बात केवल मनुष्योंके लिये ही है क्योंकि दूसरे प्राणी तो स्वाभाविक ही तमोगुणसे मोहित हैं। फिर भी यहाँ सर्वदेहिनाम् पद देनेका तात्पर्य है कि जिन मनुष्योंमें सत्असत्? कर्तव्यअकर्तव्यका ज्ञान (विवेक) नहीं है? वे मनुष्य होते हुए भी चौरासी लाख योनियोंवाले प्राणियोंके समान ही हैं अर्थात् जैसे पशुपक्षी

आदि प्राणी खापी लेते हैं और सो जाते हैं? ऐसे ही वे मनुष्य भी हैं।प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत -- यह तमोगुण प्रमाद? आलस्य और निद्राके द्वारा सम्पूर्ण देहधारियोंको बाँध देता है।प्रमाद दो तरहका होता है -- (1) करनेलायक कामको न करना अर्थात् जिस कामसे अपना और दुनियाका? अभी और परिणाममें हित होता है? ऐसे कर्तव्यकर्मोंको प्रमादके कारण न करना और (2) न करनेलायक कामको करना अर्थात् जिस कामसे अपना और

दुनियाका अभी और परिणाममें अहित होता है? ऐसे कर्मोंको करना।न करनेलायक काम भी दो तरहके होते हैं -- 1 -- व्यर्थ खर्च करना अर्थात् बीड़ीसिगरेट? भाँगगाँजा आदि पीनेमें और नाटकसिनेमा? खेल आदि देखनेमें धन खर्च करना और 2 -- व्यर्थ क्रिया करना अर्थात् ताशचौपड़ खेलना? खेलकूद करना? बिना किसी कारणके पशुपक्षी आदिको कष्ट देना? तंग करना? बिना किसी स्वार्थके छोटेछोटे पेड़पौधोंको नष्ट कर देना आदि व्यर्थ क्रियाएँ करना।आलस्य

भी दो प्रकारका होता है -- (1) सोते रहना? निकम्मे बैठे रहना? आवश्यक काम न करना और ऐसा विचार रखना कि फिर कर लेंगे? अभी तो बैठे हैं -- इस तरहका आलस्य मनुष्यको बाँधता है और (2) निद्राके पहले शरीर भारी हो जाना? वृत्तियोंका भारी हो जाना? समझनेकी शक्ति न रहना -- इस तरहका आलस्य दोषी नहीं है क्योंकि यह आलस्य आता है? मनुष्य करता नहीं।निद्रा भी दो तरहकी होती है -- (1) आवश्यक निद्रा -- जो निद्रा शरीरके स्वास्थ्यके

लिये नियमितरूपसे ली जाती है और जिससे शरीरमें हलकापन आता है? वृत्तियाँ स्वच्छ होती हैं? बुद्धिको विश्राम मिलता है? ऐसी आवश्यक निद्रा त्याज्य और दोषी नहीं है। भगवान्ने भी ऐसी नियमित निद्रोको दोषी नहीं माना है? प्रत्युत योगसाधनमें सहायक माना है -- युक्तस्वप्नावबोधस्य (6। 17) और (2) अनावश्यक निद्रा -- जो निद्रा निद्राके लिये ली जाती है? जिससे बेहोशी ज्यादा आती है? नींदसे उठनेपर भी शरीर भारी रहती है? वृत्तियाँ

भारी रहती हैं? पुरानी स्मृति नहीं होती? ऐसी अनावश्यक निद्रा त्याज्य और दोषी है। इस अनावश्यक निद्राको भगवान्ने भी त्याज्य बताया है -- न चाति स्वप्नशीलस्य (6। 16)।इस तरह तमोगुण प्रमाद? आलस्य और निद्राके द्वारा मनुष्यको बाँध देता है अर्थात् उसकी सांसारिक और पारमार्थिक उन्नति नहीं होने देता।विशेष बातसत्त्व? रज और तम -- ये तीनों गुण मनुष्यको बाँधते हैं? पर इन तीनोंके बाँधनेके प्रकारमें फरक है। सत्त्वगुण

और रजोगुण सङ्गसे बाँधते हैं अर्थात् सत्त्वगुण सुख और ज्ञानकी आसक्तिसे तथा रजोगुण कर्मोंकी आसक्तिसे बाँधता है। अतः सत्त्वगुणमें सुखसङ्ग और ज्ञानसङ्ग बताया तथा रजोगुणमें,कर्मसङ्ग बताया। परन्तु तमोगुणमें सङ्ग नहीं बताया क्योंकि तमोगुण मोहनात्मक है। इसमें,किसीका सङ्ग करनेकी जरूरत नहीं पड़ती। यह तो स्वरूपसे ही बाँधनेवाला है। तात्पर्य यह हुआ कि सत्त्वगुण और रजोगुण तो सङ्ग(सुखासक्ति) से बाँधते हैं? पर तमोगुण

स्वरूपसे ही बाँधनेवाला है।अगर सुखकी आसक्ति न हो और ज्ञानका अभिमान न हो तो सुख और ज्ञान बाँधनेवाले नहीं होते? प्रत्युत गुणातीत करनेवाले होते हैं। ऐसे ही कर्म और कर्मफलमें आसक्ति न हो? तो वह कर्म परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति करानेवाला होता है (गीता 3। 19)।उपर्युक्त तीनों गुण प्रकृतिके कार्य हैं और जीव स्वयं प्रकृति और उसके कार्य गुणोंसे सर्वथा रहित है। गुणोंके साथ सम्बन्ध जोड़नेके कारण ही वह स्वयं निर्लिप्त?

गुणातीत होता हुआ भी गुणोंके द्वारा बँध जाता है। अतः अपने वास्तविक स्वरूपका लक्ष्य रखनेसे ही साधक गुणोंके बन्धनसे छूट सकता है। सम्बन्ध --   बाँधनेसे पहले तीनों गुण क्या करते हैं -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।

भगवद गीता 14.8 - अध्याय 14 श्लोक 8 हिंदी और अंग्रेजी