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रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्।।14.7।।

rajo rāgātmakaṁ viddhi tṛiṣhṇā-saṅga-samudbhavam tan nibadhnāti kaunteya karma-saṅgena dehinam

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Word Meanings

rajaḥmode of passion
rāga-ātmakamof the nature of passion
viddhiknow
tṛiṣhṇādesires
saṅgaassociation
samudbhavamarises from
tatthat
nibadhnātibinds
kaunteyaArjun, the son of Kunti
karma-saṅgenathrough attachment to fruitive actions
dehinamthe embodied soul
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अनुवाद

।।14.7।।हे कुन्तीनन्दन ! तृष्णा और आसक्तिको पैदा करनेवाले रजोगुणको तुम रागस्वरूप समझो। वह कर्मोंकी आसक्तिसे शरीरधारीको बाँधता है।

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टीका

।।14.7।। व्याख्या --   रजो रागात्म्कं विद्धि -- यह रजोगुण रागस्वरूप है अर्थात् किसी वस्तु? व्यक्ति? परिस्थिति? घटना? क्रिया आदिमें जो प्रियता पैदा होती है? वह प्रियता रजोगुणका स्वरूप है।रागात्मकम् कहनेका तात्पर्य है कि जैसे स्वर्णके आभूषण स्वर्णमय होते हैं? ऐसे ही रजोगुण रागमय है।पातञ्जलयोगदर्शनमें क्रिया को रजोगुणका स्वरूप कहा गया है (टिप्पणी प0 717.1)। परन्तु श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् (क्रियामात्रको

गौणरूपसे रजोगुण मानते हुए भी) मुख्यतः रागको ही रजोगुणका स्वरूप मानते हैं (टिप्पणी प0 717.2)। इसीलिये योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्ग त्यक्त्वा ( 2। 48) पदोंमें आसक्तिका त्याग करके कर्तव्यकर्मोंको करनेकी आज्ञा दी गयी है। निष्कामभावसे किये गये कर्म मुक्त करनेवाले होते हैं (3। 19)। इसी अध्यायके बाईसवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि प्रवृत्ति अर्थात् क्रिया करनेका भाव उत्पन्न होनेपर भी गुणातीत पुरुषका उसमें राग

नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि गुणातीत पुरुषमें भी रजोगुणके प्रभावसे प्रवृत्ति तो होती है? पर वह रागपूर्वक नहीं होती। गुणातीत होनेमें सहायक होनेपर भी सत्त्वगुणको सुख और ज्ञानकी आसक्तिसे बाँधनेवाला कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि आसक्ति ही बन्धनकारक है? सत्त्वगुण स्वयं नहीं। अतः भगवान् यहाँ रागको ही रजोगुणका मुख्य स्वरूप जाननेके लिये कह रहे हैं।महासर्गके आदिमें परमात्माका बहु स्यां प्रजायेय -- यह

संकल्प होता है। यह संकल्प रजोगुणी है। इसको गीताने कर्म नामसे कहा है (8। 3)। जिस प्रकार दहीको बिलोनेसे मक्खन और छाछ अलगअलग हो जाते हैं? ऐसे ही सृष्टिरचनाके इस रजोगुणी संकल्पसे प्रकृतिमें क्षोभ पैदा होता है? जिससे सत्त्वगुणरूपी मक्खन और तमोगुणरूपी छाछ अलगअलग हो जाती है। सत्त्वगुणसे अन्तःकरण और ज्ञानेन्द्रियाँ? रजोगुणसे प्राण और कर्मेन्द्रियाँ तथा तमोगुणसे स्थूल पदार्थ? शरीर आदिका निर्माण होता है। तीनों

गुणोंसे संसारके अन्य पदार्थोंकी उत्पत्ति होती है। इस प्रकार महासर्गके आदिमें भगवान्का सृष्टिरचनारूप कर्म भी सर्वथा रागरहित होता है (गीता 4। 13)।तृष्णासङ्गसमुद्भवम् -- प्राप्त वस्तु? व्यक्ति? पदार्थ? परिस्थिति? घटना आदि बने रहें तथा वे और भी मिलते रहें -- ऐसी जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई की तरह तृष्णा पैदा हो जाती है। इस तृष्णासे फिर वस्तु आदिमें आसक्ति पैदा हो जाती है।व्याकरणके अनुसार इस तृष्णासङ्गसमुद्भवम्

पदके दो अर्थ होते हैं -- (1) जिससे तृष्णा और आसक्ति पैदा होती है (टिप्पणी प0 718.1) अर्थात् तृष्णा और आसक्तिको पैदा करनेवाला और (2) जो तृष्णा और आसक्तिसे पैदा होता है (टिप्पणी प0 718.2) अर्थात् तृष्णा और आसक्तिसे पैदा होनेवाला। जैसे बीच और वृक्ष अन्योन्य कारण हैं? अर्थात् बीजसे वृक्ष पैदा होता है और वृक्षसे फिर बहुतसे बीज पैदा होते हैं? ऐसे ही रागस्वरूप रजोगुणसे तृष्णा और आसक्ति बढ़ती है तथा तृष्णा

और आसक्तिसे रजोगुण बहुत बढ़ जाता है। तात्पर्य है कि ये दोनों ही एकदूसरेको पुष्ट करनेवाले हैं। अतः उपर्युक्त दोनों ही अर्थ ठीक हैं।तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् -- रजोगुण कर्मोंकी आसक्तिसे शरीरधारीको बाँधता है अर्थात् रजोगुणके बढ़नेपर ज्योंज्यों तृष्णा और आसक्ति बढ़ती है? त्योंहीत्यों मनुष्यकी कर्म करनेकी प्रवृत्ति बढ़ती है। कर्म करनेकी प्रवृत्ति बढ़नेसे मनुष्य नयेनये कर्म करना शुरू कर देता

है। फिर वह रातदिन इस प्रवृत्तिमें फँसा रहता है अर्थात् मनुष्यकी मनोवृत्तियाँ रातदिन नयेनये कर्म आरम्भ करनेके चिन्तनमें लगी रहती हैं। ऐसी अवस्थामें उसको अपना कल्याण? उद्धार करनेका अवसर ही प्राप्त नहीं होता। इस तरह रजोगुण कर्मोंकी सुखासक्तिसे शरीरधारीको बाँध देता है अर्थात् जन्ममरणमें ले जाता है। अतः साधकको प्राप्त परिस्थितिके अनुसार निष्कामभावसे कर्तव्य कर्म तो कर देना चाहिये? पर संग्रह और सुखभोगके

लिये नयेनये कर्मोंका आरम्भ नहीं करना चाहिये।देहिनम् पदका तात्पर्य है कि देहसे अपना सम्बन्ध माननेवाले देहीको ही यह रजोगुण कर्मोंकी आसक्तिसे बाँधता है।सकामभावसे कर्मोंको करनेमें भी एक सुख होता है और कर्मोंका अमुक फल भोगेंगे इस फलासक्तिमें भी एक सुख होता है। इस कर्म और फलकी सुखासक्तिसे मनुष्य बँध जाता है।कर्मोंकी सुखासक्तिसे छूटनेके लिये साधक यह विचार करे कि ये पदार्थ? व्यक्ति? परिस्थिति? घटना आदि कितने

दिन हमारे साथ रहेंगे। कारण कि सब दृश्य प्रतिक्षण अदृश्यतामें जा रहा है जीवन प्रतिक्षण मृत्युमें जा रहा है सर्ग प्रतिक्षण प्रलयमें जा रहा है महासर्ग प्रतिक्षण महाप्रलयमें जा रहा है। आज दिनतक जो बाल्य? युवा आदि अवस्थाएँ चली गयीं? वे फिर नहीं मिल सकतीं। जो समय चला गया? वह फिर नहीं मिल सकता। बड़ेबड़े राजामहाराजाओं और धनियोंकी अन्तिम दशाको याद करनेसे तथा बड़ेबड़े राजमहलों और मकानोंके खण्डहरोंको देखनेसे

साधकको यह विचार आना चाहिये कि उनको जो दशा हुई है? वही दशा इस शरीर? धनसम्पत्ति? मकान आदिकी भी होगी। परन्तु मैंने इनके प्रलोभनमें पड़कर अपनी शक्ति? बुद्धि? समयको बरबाद कर दिया है। यह तो बड़ी भारी हानि हो गयी ऐसे विचारोंसे साधकके अन्तःकरणमें सात्त्विक वृत्तियाँ आयेंगी और वह कर्मसङ्गसे ऊँचा उठ जायगा।अगर मैं रातदिन नयेनये कर्मोंके करनेमें ही लगा रहूँगा? तो मेरा मनुष्यजन्म निरर्थक चला जायगा और उन कर्मोंकी

आसक्तिसे मेरेको न जाने किनकिन योनियोंमें जाना पड़ेगा और कितनी बार जन्मनामरना पड़ेगा इसलिये मुझे संग्रह और सुखभोगके लिये नयेनये कर्मोंका आरम्भ नहीं करना है? प्रत्युत प्राप्त परिस्थितिके अनुसार अनासक्तभावसे कर्तव्यकर्म करना है ऐसे विचारोंसे भी साधक कर्मोंकी आसक्तिसे ऊँचा उठ जाता है। सम्बन्ध --   तमोगुणका स्वरूप और उसके बाँधनेका प्रकार क्या है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।

भगवद गीता 14.7 - अध्याय 14 श्लोक 7 हिंदी और अंग्रेजी