Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।।13.8।। इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।13.9।। असक्ितरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।।13.10।। मयि चानन्ययोगेन भक्ितरव्यभिचारिणी।विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि।।13.11।। अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा।।13.12।।

amānitvam adambhitvam ahinsā kṣhāntir ārjavam āchāryopāsanaṁ śhauchaṁ sthairyam ātma-vinigrahaḥ indriyārtheṣhu vairāgyam anahankāra eva cha janma-mṛityu-jarā-vyādhi-duḥkha-doṣhānudarśhanam asaktir anabhiṣhvaṅgaḥ putra-dāra-gṛihādiṣhu nityaṁ cha sama-chittatvam iṣhṭāniṣhṭopapattiṣhu mayi chānanya-yogena bhaktir avyabhichāriṇī vivikta-deśha-sevitvam aratir jana-sansadi adhyātma-jñāna-nityatvaṁ tattva-jñānārtha-darśhanam etaj jñānam iti proktam ajñānaṁ yad ato ’nyathā

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Word Meanings

amānitvamhumbleness
adambhitvamfreedom from hypocrisy
ahinsānon-violence
kṣhāntiḥforgiveness
ārjavamsimplicity
āchārya-upāsanamservice of the Guru
śhauchamcleanliness of body and mind
sthairyamsteadfastness
ātma-vinigrahaḥself-control
indriya-artheṣhutoward objects of the senses
vairāgyamdispassion
anahankāraḥabsence of egotism
eva chaand also
janmaof birth
mṛityudeath
jarāold age
vyādhidisease
duḥkhaevils
doṣhafaults
anudarśhanamperception
asaktiḥnon-attachment
anabhiṣhvaṅgaḥabsence of craving
putrachildren
dāraspouse
gṛiha-ādiṣhuhome, etc
nityamconstant
chaand
sama-chittatvameven-mindedness
iṣhṭathe desirable
aniṣhṭaundesirable
upapattiṣhuhaving obtained
mayitoward me
chaalso
ananya-yogenaexclusively united
bhaktiḥdevotion
avyabhichāriṇīconstant
viviktasolitary
deśhaplaces
sevitvaminclination for
aratiḥaversion
jana-sansadifor mundane society
adhyātmaspiritual
jñānaknowledge
nityatvamconstancy
tattva-jñānaknowledge of spiritual principles
arthafor
darśhanamphilosophy
etatall this
jñānamknowledge
itithus
proktamdeclared
ajñānamignorance
yatwhat
ataḥto this
anyathācontrary
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अनुवाद

।।13.8।।मानित्व-(अपनेमें श्रेष्ठताके भाव-) का न होना, दम्भित्व-(दिखावटीपन-) का न होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरुकी सेवा, बाहर-भीतरकी शुद्धि, स्थिरता और मनका वशमें होना। ।।13.9।।इन्द्रियोंके विषयोंमें वैराग्यका होना, अहंकारका भी न होना और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियोंमें दुःखरूप दोषोंको बार-बार देखना। ।।13.10।।आसक्तिरहित होना;  पुत्र,  स्त्री, घर आदिमें एकात्मता (घनिष्ठ सम्बन्ध) न होना और अनुकूलता-प्रतिकूलताकी प्राप्तिमें चित्तका नित्य सम रहना। ।।13.11।।मेरेमें अनन्ययोगके द्वारा अव्यभिचारिणी भक्तिका होना, एकान्त स्थानमें रहनेका स्वभाव होना और जन-समुदायमें प्रीतिका न होना। ।।13.12।।अध्यात्मज्ञानमें नित्य-निरन्तर रहना, तत्त्वज्ञानके अर्थरूप परमात्माको सब जगह देखना -- यह (पूर्वोक्त साधन-समुदाय) तो ज्ञान है; और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है -- ऐसा कहा गया है।

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टीका

।।13.8।। व्याख्या --   अमानित्वम् -- अपनेमें मानीपनके अभावका नाम अमानित्व है। वर्ण? आश्रम? योग्यता? विद्या? गुण? पद आदिको लेकर अपनेमें श्रेष्ठताका भाव होता है कि मैं मान्य हूँ? आदरणीय हूँ? परन्तु यह भाव उत्पत्तिविनाशशील शरीरके साथ तादात्म्य होनेसे ही होता है। अतः इसमें जडताकी ही मुख्यता रहती है। इस मानीपनके रहनेसे साधकको वास्तविक ज्ञान नहीं होता। यह मानीपन साधकमें जितना कम रहेगा? उतना ही जडताका महत्त्व

कम होगा। जडताका महत्त्व जितना कम होगा? जडताको लेकर अपनेमें मानीपनका भाव भी उतना ही कम होगा? और साधक उतना ही चिन्मयताकी तरफ तेजीसे लगेगा।उपाय -- जब साधक खुद बड़ा बन जाता है? तब उसमें मानीपन आ जाता है। अतः साधकको चाहिये कि जो श्रेष्ठ पुरुष हैं? साधनमें अपनेसे बड़े हैं? तत्त्वज्ञ (जीवन्मुक्त) हैं? उनका सङ्ग करे? उनके पासमें रहे? उनके अनुकूल बन जाय। इससे मानीपन दूर हो जाता है। इतना ही नहीं? उनके सङ्गसे

बहुतसे दोष सुगमतापूर्वक दूर हो जाते हैं।गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं -- सबहि मानप्रद आपु अमानी (मानस 7। 38। 2) अर्थात् संत सभीको मान देनेवाले और स्वयं अमानी -- मान पानेकी इच्छासे रहित होते हैं। इसी तरह साधकको भी मानीपन दूर करनेके लिये सदा दूसरोंको मान? आदर? सत्कार? बड़ाई आदि देनेका स्वभाव बनाना चाहिये। ऐसा स्वभाव तभी बन सकता है? जब वह दूसरोंको किसीनकिसी दृष्टिसे अपनेसे श्रेष्ठ माने। यह नियम है कि

प्रत्येक मनुष्य भिन्नभिन्न स्थितिवाला होते हुए भी कोईनकोई विशेषता रखता ही है। यह विशेषता वर्ण? आश्रम? गुण? विद्या? बुद्धि? योग्यता? पद? अधिकार आदि किसी भी कारणसे हो सकती है। अतः साधकको चाहिये कि वह दूसरोंकी विशेषताकी तरफ दृष्टि रखकर उनका सदा सम्मान करे। इस प्रकार दूसरोंको मान देनेका भीतरसे स्वभाव बन जानेसे स्वयं मान पानेकी इच्छाका स्वतः अभाव होता चला जाता है। हाँ? दूसरोंको मान देते समय साधकका उद्देश्य

अपनेमें मानीपन मिटानेका होना चाहिये? बदलेमें दूसरोंसे मान पानेका नहीं।विशेष बात गीतामें भगवान्ने भक्तिमार्गके साधकमें सबसे पहले भयका अभाव बताया है -- अभयम् (16। 1)? और अन्तमें मानीपनका अभाव बताया है -- नातिमानिता (16। 3)। परन्तु ज्ञानमार्गके साधनमें मानीपनका अभाव सबसे पहले बताया है -- अमानित्वम् (13। 7) और भयका अभाव सबसे अन्तमें बताया है -- तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् (13। 11)। इसका तात्पर्य यह है कि जैसे

बालक अपनी माँको देखकर अभय हो जाता है? ऐसे ही भक्तिमार्गमें साधक प्रह्लादजीकी तरह आरम्भसे ही सब जगह अपने प्रभुको ही देखता है? इसलिये वह आरम्भमें ही अभय हो जाता है। भक्तमें स्वयं अमानी रहकर दूसरोंको मान देनेकी आदत शुरूसे ही रहती है। अन्तमें उसका देहाध्यास अर्थात् शरीरसे मानी हुई एकता अपनेआप मिट जाती है? तो वह सर्वथा अमानी हो जाता है। परन्तु ज्ञानमार्गमें साधक आरम्भसे ही शरीरके साथ अपनी एकता नहीं मानता

(13। 1)? इसलिये वह आरम्भमें ही अमानी हो जाता है क्योंकि शरीरसे एकता माननेसे ही मानीपन आता है। अन्तमें वह तत्त्वज्ञानके अर्थरूप परमात्माको सब जगह देखकर अभय हो जाता है।अदम्भित्वम् -- दम्भ नाम दिखावटीपनका है। लोग हमारेमें अच्छे गुण देखेंगे तो वे हमारा आदर करेंगे? हमें माला पहनायेंगे? हमारी पूजा करेंगे? हमें ऊँचे आसनपर बैठायेंगे आदिको लेकर अपनेमें वैसा गुण न होनेपर भी गुण दिखाना? अपनेमें गुण कम होनेपर

भी उसे बाहरसे ज्यादा प्रकट करना -- यह सब दम्भ है।अपनेमें सदाचार है? शुद्धि है? पवित्रता है? पर अगर लोगोंके सामने हम पवित्रता रखेंगे तो वे हमारी हँसी उड़ायेंगे? हमारी निन्दा करेंगे -- ऐसा सोचकर अपनी पवित्रता छोड़ देना और सामनेवालेकी तरह बन जाना ही दम्भ है। जैसे? आजकल विवाह आदिके अवसरोंपर? क्लबोंहोटलोंके स्वागतसमारोहोंमें अथवा वायुयान आदिपर यात्रा करते समय पवित्र आचरणवाले सज्जन भी मानसत्कार आदिके लिये

अपवित्र खाद्य पदार्थ लेते देखे जाते हैं। यह भी दम्भ ही है। इसी तरह दुराचारी पुरुष भी अच्छे लोगोंके समुदायमें आनेपर मान? सत्कार? कीर्ति? प्रतिष्ठा आदिकी प्राप्तिकी इच्छासे अपनेको बाहरसे धर्मात्मा? भक्त? सेवक? दानी आदि प्रकट करने लगते हैं? तो यह भी दम्भ ही है।कोई साधक एकान्तमें? बंद कमरेमें बैठकर जप? ध्यान? चिन्तन कर रहा है और साथमें आलस्य? नींद भी ले रहा है। परन्तु जब बाहरसे उसपर श्रद्धा? पूज्यभाव

रखनेवाले आदमीकी आवाज आती है? तब उस आवाजको सुनते ही वह सावधान होकर जपध्यान करने लग जाता है और उसके नींदआलस्य भाग जाते हैं। यह भी एक सूक्ष्म दम्भ है। इसमें भी देखा जाय तो आवाज सुनकर सावधान हो जाना कोई दोष नहीं है? पर उसमें जो दिखावटीपनका भाव आ जाता है कि यह आदमी मेरेमें अश्रद्धा न कर ले? यह भाव आना दोष है। इस भावके स्थानपर ऐसा भाव आना चाहिये कि भगवान्ने बड़ा अच्छा किया कि मेरेको सावधान करके जपध्यानमें

लगा दिया। इन सब प्रकारके दम्भोंका अभाव होना अदम्भित्व है।उपाय -- साधकको अपना उद्देश्य एकमात्र परमात्मप्राप्तिका ही रखना चाहिये? लोगोंको दिखानेका किञ्चिन्मात्र भी नही। अगर उसमें दिखावटीपन आ जायगा तो उसके साधनमें शिथिलता आ जायगी? जिससे उद्देश्यकी सिद्धिमें बाधा लग जायेगी। अतः उसको कोई अच्छा? बुरा? ऊँच? नीच जो कुछ भी समझे? इसकी तरफ खयाल न करके वह अपने साधनमें लगा रहे। ऐसी सावधानी रखनेसे दम्भ मिट जाता

है।अहिंसा -- मन? वाणी और शरीरसे कभी किसीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख न देनेका नाम अहिंसा है। कर्ताभेदसे हिंसा तीन प्रकारकी होती है -- कृत (स्वयं हिंसा करना)? कारित (किसीसे हिंसा करवाना) और अनुमोदित (हिंसाका अनुमोदनसमर्थन करना)।उपर्युक्त तीन प्रकारकी हिंसा तीन भावोंसे होती है -- क्रोधसे? लोभसे और मोहसे। तात्पर्य है कि क्रोधसे भी कृत? कारित और अनुमोदित हिंसा होती है लोभसे भी कृत? कारित और अनुमोदित हिंसा

होती है तथा मोहसे भी कृत? कारित और अनुमोदित हिंसा होती है। इसी तरह हिंसा नौ प्रकारकी हो जाती है।उपर्युक्त नौ प्रकारकी हिंसामें तीन मात्राएँ होती हैं -- मृदुमात्रा? मध्यमात्रा और अधिमात्रा। किसीको थोड़ा दुःख देना मृदुमात्रामें हिंसा है? मृदुमात्रासे अधिक दुःख देना मध्यमात्रामें हिंसा है और बहुत अधिक घायल कर देना अथवा खत्म कर देना अधिमात्रामें हिंसा है। इस तरह मृदु? मध्य और अधिमात्राके भेदसे हिंसा सत्ताईस

प्रकारकी हो जाती है।उपर्युक्त सत्ताईस प्रकारकी हिंसा तीन करणोंसे होती है -- शरीरसे? वाणीसे और मनसे। इस तरह हिंसा इक्यासी प्रकारकी हो जाती है। इनमेंसे किसी भी प्रकारकी हिंसा न करनेका नाम अहिंसा है।अहिंसा भी चार प्रकार की होती है -- देशगत? कालगत? समयगत और व्यक्तिगत। अमुक तीर्थमें? अमुक मन्दिरमें? अमुक स्थानमें किसीको दुःख नहीं देना है -- यह देशगत अहिंसा है। अमावस्या? पूर्णिमा? व्यतिपात आदि पर्वोंके

दिन किसीको दुःख नहीं देना है -- यह कालगत अहिंसा है। सन्तके मिलनेपर? पुत्रके जन्मदिनपर? पिताके निधनदिवसपर किसीको दुःख नहीं देना है -- यह समयगत अहिंसा है। गाय? हरिण आदिको तथा गुरुजन? मातापिता? बालक आदिको दुःख नहीं देना है -- यह व्यक्तिगत अहिंसा है।किसी भी देश? काल आदिमें क्रोधलोभमोहपूर्वक किसीको भी शरीर? वाणी और मनसे किसी भी प्रकारसे दुःख न देनेसे यह सार्वभौम अहिंसा महाव्रत कहलाती है।उपाय -- जैसे साधारण

प्राणी अपने शरीरका सुख चाहता है? ऐसे ही साधकको सबके सुखमें अपना सुख? सबके हितमें अपना हित और सबकी सेवामें अपनी सेवा माननी चाहिये अर्थात् सबके सुख? हित और सेवासे अपना सुख? हित और सेवा अलग नहीं माननी चाहिये। सब अपने ही स्वरूप हैं -- ऐसा विवेक जाग्रत् रहनेसे उसके द्वारा किसीको दुःख देनेकी क्रिया होगी ही नहीं और उसमें अहिंसाभाव स्वतः आ जायगा।क्षान्तिः -- क्षान्ति नाम सहनशीलता अर्थात् क्षमाका है। अपनेमें

सामर्थ्य होते हुए भी अपराध करनेवालेको कभी किसी प्रकारसे किञ्चिन्मात्र भी दण्ड न मिले -- ऐसा भाव रखना तथा उससे बदला लेने अथवा किसी दूसरेके द्वारा दण्ड दिलवानेका भाव न रखना ही क्षान्ति है।उपाय -- (1) सहनशीलता अपने स्वरूपमें स्वतःसिद्ध है क्योंकि अपने स्वरूपमें कभी विकृति होती ही नहीं। अतः कभी अमुकने दुःख दिया है? अपराध किया है -- ऐसी कोई वृत्ति आ भी जाय? तो उस समय यह,विचार स्वतः आना चाहिये कि हमारा

कोई बिगाड़ कर ही नहीं सकता? हमारेमें कोई विकृति आ ही नहीं सकती? वह हमारे स्वरूपतक पहुँच ही नहीं सकती। ऐसा विचार करनेसे क्षमाभावः स्वतः आ जाता है।(2) जैसे भोजन करते समय अपने ही दाँतोंसे अपनी जीभ कट जाय? तो हम दाँतोंपर क्रोध नहीं करते? दाँतोंको दण्ड नहीं देते। हाँ? जीभ ठीक हो जाय -- यह बात तो मनमें आती है? पर दाँतोंको तोड़ दें -- यह भाव मनमें कभी आता ही नहीं। कारण कि दाँतोंको तोड़ेंगे तो एक नयी पीड़ा

और होगी अर्थात् पीड़ा दुगुनी होगी? जिससे हमारेको ही दुःख होगा? हमारा ही अनिष्ट होगा। ऐसे ही बिना कारण कोई हमारा अपराध करता है? हमें दुःख देता है? उसको अगर हम दण्ड देंगे? दुःख देंगे तो वास्तवमें हमारा ही अनिष्ट होगा क्योंकि वह भी तो अपना ही स्वरूप है (गीता 6। 29)।आर्जवम् -- सरलसीधेपनके भावको आर्जव कहते हैं। साधकके शरीर? मन और वाणीमें सरलसीधापन होना चाहिये। शरीरकी सजावटका भाव न होना? रहनसहनमें सादगी

तथा चालढालमें स्वाभाविक सीधापन होना? ऐंठअकड़ न होना -- यह शरीरकी सरलता है। छल? कपट? ईर्ष्या? द्वेष आदिका न होना तथा निष्कपटता? सौम्यता? हितैषिता? दया आदिका होना -- यह मनकी सरलता है। व्यंग्य? निन्दा? चुगली आदि न करना? चुभनेवाले एवं अपमानजनक वचन न बोलना तथा सरल? प्रिय और हितकारक वचन बोलना -- यह वाणीकी सरलता है।उपाय -- अपनेको एक देशमें माननेसे अर्थात् स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरके साथ सम्बन्ध रखनेसे

अपनेमें दूसरोंकी अपेक्षा विशेषता दीखती है। इससे व्यवहारमें भी चलतेफिरते? उठतेबैठते? आदि क्रिया करते हुए कुछ टेढ़ापन? अकड़ आ जाती है। अतः शरीरके साथ अपना सम्बन्ध न माननेसे और अपने स्वरूपकी तरफ दृष्टि रखनेसे यह अकड़ मिट जाती है और साधकमें स्वतः सरलता? नम्रता आ जाती है।आचार्योपासनम् -- विद्या और सदुपदेश देनेवाले गुरुका नाम भी आचार्य है और उनकी सेवासे भी लाभ होता है परन्तु यहाँ आचार्य पद परमात्मतत्त्वको

प्राप्त जीवन्मुक्त महापुरुषका ही वाचक है। आचार्यको दण्डवत्प्रणाम करना? उनका आदरसत्कार करना और उनके शरीरको सुख पहुँचानेकी शास्त्रविहित चेष्टा करना भी उनकी उपासना है? पर वास्तवमें उनके सिद्धान्तों और भावोंके अनुसार अपना जीवन बनाना ही उनकी सच्ची उपासना है। कारण कि देहाभिमानीकी सेवा तो उसके देहकी सेवा करनेसे ही हो जाती है? पर गुणातीत महापुरुषके केवल देहकी सेवा करना उनकी पूर्ण सेवा नहीं है।भगवान्ने दैवी

सम्पत्तिके लक्षणोंमें आचार्योपासनम् पद न देकर यहाँ ज्ञानके साधनोंमें उसे दिया है। इसमें एक विशेष रहस्यकी बात मालूम देती है कि ज्ञानमार्गमें गुरुकी जितनी आवश्यकता है? उतनी आवश्यकता भक्तिमार्गमें नहीं है। कारण कि भक्तिमार्गमें साधक सर्वथा भगवान्के आश्रित रहकर ही साधन करता है? इसलिये भगवान् स्वयं उसपर कृपा करके उसके योगक्षेमका वहन करते हैं (गीता 9। 22)? उसकी कमियोंको? विघ्नबाधाओंको दूर कर देते हैं (गीता

18। 58) और उसको तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति करा देते हैं (गीता 10। 11)। परन्तु ज्ञानमार्गमें साधक अपनी साधनाके बलपर चलता है? इसलिये उसमें कुछ सूक्ष्म कमियाँ रह सकती हैं जैसे -- (1) शास्त्रों एवं संतोंके द्वारा ज्ञान प्राप्त करके जब साधक शरीरको (अपनी धारणासे) अपनेसे अलग मानता है? तब उसे शान्ति मिलती है। ऐसी दशामें वह यह मान लेता है कि मेरेको तत्त्वज्ञान प्राप्त हो गया परन्तु जब मानअपमानकी स्थिति सामने आती

है अथवा अपनी इच्छाके अनुकूल या प्रतिकूल घटना घटती है? तब अन्तःकरणमें हर्षशोक पैदा हो जाते हैं? जिससे सिद्ध होता है कि अभी तत्त्वज्ञान हुआ नहीं।(2) किसी आदमीके द्वारा अचानक अपना नाम सुनायी पड़नेपर अन्तःकरणमें इस नामवाला शरीर मैं हूँ, -- ऐसा भाव उत्पन्न हो जाता है? तो समझना चाहिये कि अभी मेरी शरीरमें ही स्थिति है।(3) साधनाकी ऊँची स्थिति प्राप्त होनेपर जाग्रत्अवस्थामें तो साधकको जडचेतनका विवेक अच्छी

तरह रहता है? पर निद्रावस्थामें उसकी विस्मृति हो जाती है। इसलिये नींदसे जगनेपर साधक उस विवेकको पकड़ता है? जब कि सिद्ध महापुरुषका विवेक स्वाभाविक रूपसे रहता है।(4) साधकमें पूज्यजनोंसे भी मानआदर पानेकी इच्छा हो जाती है जैसे -- जब वह संतों या गुरुजनोंकी सेवा करता है? सत्सङ्ग आदिमें मुख्यतासे भाग लेता है? तब उसके भीतर ऐसा भाव पैदा होता है कि वे संत या गुरुजन मेरेको दूसरोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ मानें। यह उसकी

सूक्ष्म कमी ही है।इस प्रकार साधकमें कई कमियोंके रहनेकी सम्भावना रहती है? जिनकी तरफ खयाल न रहनेसे वह अपने अधूरे ज्ञानको भी पूर्ण मान सकता है। इसलिये भगवान् आचार्योपासनम् पदसे यह कह रहे हैं कि ज्ञानमार्गके साधकको आचार्यके पास रहकर उनकी अधीनतामें ही साधन करना चाहिये। चौथे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भी भगवान्ने अर्जुनसे कहा है कि तू तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंके पास जा? उनको दण्डवत्प्रणाम कर? उनकी

सेवा कर और अपनी जिज्ञासापूर्तिके लिये नम्रतापूर्वक प्रश्न कर तो वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी महात्मा तेरेको ज्ञानका उपदेश देंगे। इस प्रकार साधन करनेपर वे महापुरुष उसकी उन सूक्ष्म कमियोंको? जिनको वह खुद भी नहीं जानता? दूर करके उसको सुगमतासे परमात्मतत्त्वका अनुभव करा सकते हैं।साधकको शुरूमें ही सोचसमझकर आचार्य? संतमहापुरुषके पास जाना चाहिये। आचार्य (गुरु) कैसा हो इस सम्बन्धमें ये बातें ध्यानमें रखनी चाहिये

-- (1) अपनी दृष्टिमें जो वास्तविक बोधवान्? तत्त्वज्ञ दीखते हों।(2) जो कर्मयोग? ज्ञानयोग? भक्तियोग आदि साधनोंको ठीकठीक जाननेवाले हों।(3) जिनके सङ्गसे? वचनोंसे हमारे हृदयमें रहनेवाली शङ्काएँ बिना पूछे ही स्वतः दूर हो जाती हों।(4) जिनके पासमें रहनेसे प्रसन्नता? शान्तिका अनुभव होता हो।(5) जो हमारे साथ केवल हमारे हितके लिये ही सम्बन्ध रखते हुए दीखते हों।(6) जो हमारेसे किसी भी वस्तुकी किञ्चिन्मात्र भी आशा

न रखते हों।(7) जिनकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ केवल साधकोंके हितके लिये ही होती हों।(8) जिनके पासमें रहनेसे लक्ष्यकी तरफ हमारी लगन स्वतः बढ़ती हो।(9) जिनके सङ्ग? दर्शन? भाषण? स्मरण आदिसे हमारे दुर्गुणदुराचार दूर होकर स्वतः सद्गुणसदाचाररूप दैवी सम्पत्ति आती हो।(10) जिनके सिवाय और किसीमें वैसी अलौकिकता? विलक्षणता न दीखती हो।ऐसे आचार्य? संतके पास रहना चाहिये और केवल अपने उद्धारके लिये ही उनसे सम्बन्ध रखना चाहिये।

वे क्या करते हैं? क्या नहीं करते वे ऐसी क्रिया नहीं करते हैं वे कब किसके साथ कैसा बर्ताव करते हैं आदिमें अपनी बुद्धि नहीं लगानी चाहिये अर्थात् उनकी क्रियाओंमें तर्क नहीं लगाना चाहिये। साधकको तो उनके अधीन होकर रहना चाहिये? उनकी आज्ञा? रुखके अनुसार मात्र क्रियाएँ करनी चाहिये और श्रद्धाभावपूर्वक उनकी सेवा करनी चाहिये। अगर वे महापुरुष न चाहते हों तो उनसे गुरुशिष्यका व्यावहारिक सम्बन्ध भी जोड़नेकी आवश्यकता

नहीं है। हाँ? उनको हृदयसे गुरु मानकर उनपर श्रद्धा रखनेमें कोई आपत्ति नहीं है।अगर ऐसे महापुरुष न मिलें तो साधकको चाहिये कि वह केवल परमात्माके परायण होकर उनके ध्यान? चिन्तन आदिमें लग जाय और विश्वास रखे कि परमात्मा अवश्य गुरुकी प्राप्ति करा देंगे। वास्तवमें देखा जाय तो पूर्णतया परमात्मापर निर्भर हो जानेके बाद गुरुका काम परमात्मा ही पूर्ण कर देते हैं क्योंकि गुरुके द्वारा भी वस्तुतः परमात्मा ही साधकका

मार्गदर्शन करते हैं।उपाय -- जिस साधकका परमात्मप्राप्तिका ही उद्देश्य है? उसमें यह भाव रहना चाहिये कि आजतक जिसकिसीको जो कुछ भी मिला है? वह गुरुकी? सन्तोंकी सेवासे उनकी प्रसन्नतासे? उनके अनुकूल बननेसे ही मिला है (टिप्पणी प0 679) अतः मेरेको भी सच्चे हृदयसे सन्तोंकी सेवा करनी है।विशेष बात शिष्यका कर्तव्य है -- गुरुकी सेवा करना। अगर शिष्य अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन करे तो उसका संसारसे सम्बन्धविच्छेद

हो जाता है और वह गुरुतत्त्वके साथ एक हो जाता है अर्थात् उसमें गुरुत्व आ जाता है। संसारसे सम्बन्धविच्छेद होनेपर मुक्ति और गुरुतत्त्वसे एक होनेपर भक्ति प्राप्त होती है। शिष्यमें गुरुत्व आनेसे उसमें शिष्यत्व नहीं रहता। उसपर शास्त्र आदिका शासन नहीं रहता। अगर शिष्य अपने कर्तव्यका पालन न करे तो उसका नाम तो शिष्य रहेगा? पर उसमें शिष्यत्व नहीं रहेगा। शिष्यत्व न रहनेसे उसका संसारसे सम्बन्धविच्छेद नहीं होगा

और उसमें गुरुत्व भी नहीं आयेगा। अतः उसमें संसारकी दासता रहेगी।गुरु केवल मेरा ही कल्याण करे -- ऐसा भाव रखना भी शिष्यके लिये बन्धन है। शिष्यको चाहिये कि वह अपने लिये कुछ भी न चाहकर सर्वथा गुरुके समर्पित हो जाय? उनकी मरजीमें ही अपनी मरजी मिला दे।गुरुका कर्तव्य है -- शिष्यका कल्याण करना। अगर गुरु अपने कर्तव्यका पालन न करे तो उसका नाम तो गुरु रहेगा? पर उसमें गुरुत्व नहीं रहेगा। गुरुत्व न रहनेसे उसमें शिष्यका

दासत्व रहेगा। जबतक गुरु शिष्यसे कुछ भी (धन? मान? बड़ाई आदि) चाहता है? तबतक उसमें गुरुत्व न रहकर शिष्यकी दासता रहती है।शौचम् -- बाहरभीतरकी शुद्धिका नाम शौच है। जल? मिट्टी आदिसे शरीरकी शुद्धि होती है और दया? क्षमा? उदारता आदिसे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है।उपाय -- शरीर बना ही ऐसे पदार्थोंसे है कि इसको चाहे जितना शुद्ध करते रहें? यह अशुद्ध ही रहता है। इससे बारबार अशुद्धि ही निकलती रहती है। अतः इसको बारबार

शुद्ध करतेकरते इसकी वास्तविक अशुद्धिका ज्ञान होता है? जिससे शरीरसे अरुचि (उपरामता) हो जाती है।वर्ण? आश्रम आदिके अनुसार सच्चाईके साथ धनका उपार्जन करना झूठ? कपट आदि न करना पराया हक न आने देना खानपानमें पवित्र चीजें काममें लाना आदिसे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है।स्थैर्यम् -- स्थैर्य नाम स्थिरताका? विचलित न होनेका है। जो विचार कर लिया है? जिसको लक्ष्य बना लिया है? उससे विचलित न होना स्थैर्य है। मेरेको तत्त्वज्ञान

प्राप्त करना ही है -- ऐसा दृढ़ निश्चय करना और विघ्नबाधाओंके आनेपर भी उनसे विचलित न होकर अपने निश्चयके अनुसार साधनमें तत्परतापूर्वक लगे रहना -- इसीको यहाँ स्थैर्यम् पदसे कहा गया है।उपाय -- (1) सांसारिक भोग और संग्रहमें आसक्त पुरुषोंकी बुद्धि एक निश्चयपर दृढ़ नहीं रहती (गीता 2। 44)। अतः साधकको भोग और संग्रहकी आसक्तिका त्याग कर देना चाहिये।(2) साधक अगर किसी छोटेसेछोटे कार्यका भी विचार कर ले? तो उस विचारकी

हिंसा न करे अर्थात् उसपर दृढ़तासे स्थिर रहे। ऐसा करनेसे उसका स्थिर रहनेका स्वभाव बन जायगा।(3) साधकका संतों और शास्त्रोंके वचनोंपर जितना अधिक विश्वास होगा? उतनी ही उसमें स्थिरता आयेगी।आत्मविनिग्रहः -- यहाँ आत्मा नाम मनका है? और उसको वशमें करना ही आत्मविनिग्रहः है। मनमें दो तरहकी चीजें पैदा होती हैं -- स्फुरणा और संकल्प। स्फुरणा अनेक प्रकारकी होती है और वह आतीजाती रहती हैं। पर जिस स्फुरणामें मन चिपक

जाता है? जिसको मन पकड़ लेता है? वह संकल्प बन जाती है। संकल्पमें दो चीजें रहती हैं -- राग और द्वेष। इन दोनोंको लेकर मनमें चिन्तन होता है। स्फुरणा तो दर्पणके दृश्यकी तरह होती है। दर्पणमें दृश्य दीखता तो है? पर कोई भी दृश्य चिपकता नहीं अर्थात् दर्पण किसी भी दृश्यको पकड़ता नहीं। परन्तु संकल्प कैमरेकी फिल्मकी तरह होता है? जो दृश्यको पकड़ लेता है। अभ्याससे अर्थात् मनको बारबार ध्येयमें लगानेसे स्फुरणाएँ

नष्ट हो जाती हैं और वैराग्यसे अर्थात् किसी वस्तु? व्यक्ति? पदार्थ आदिमें राग? महत्त्व न रहनेसे संकल्प नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार अभ्यास और वैराग्यसे मन वशमें हो जाता है (गीता 6। 35)।उपाय -- (मनको वशमें करनेके उपाय छठे अध्यायके छब्बीसवें श्लोककी व्याख्यामें देखने चाहिये)। ।।13.9।। व्याख्या --   इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम् -- लोकपरलोकके शब्दादि समस्त विषयोंमें इन्द्रियोंका खिंचाव न होना ही इन्द्रियोंके

विषयोंमें रागरहित होना है। इन्द्रियोंका विषयोंके साथ सम्बन्ध होनेपर भी तथा शास्त्रके अनुसार जीवननिर्वाहके लिये इन्द्रियोंद्वारा विषयोंका सेवन करते हुए भी साधकको विषयोंमें राग? आसक्ति? प्रियता नहीं होनी चाहिये।उपाय -- (1) विषयोंमें राग होनेसे ही विषयोंकी महत्ता दीखती है? संसारमें आकर्षण होता है और इसीसे सब पाप होते हैं। अगर हमारा विषयोंमें ही राग रहेगा तो तत्त्वबोध कैसे होगा परमात्मतत्त्वमें हमारी

स्थिति कैसे होगी अगर रागका त्याग कर दें तो परमात्मामें स्थिति हो जायगी -- ऐसा विचार करनेसे विषयोंसे वैराग्य हो जाता है।(2) बड़ेबड़े धनी? शूरवीर? राजामहाराजा हुए और उन्होंने बहुतसे भोगोंको भोगा? पर अन्तमें उनका क्या रहा कुछ नहीं रहा। उनके शरीर कमजोर हो गये और अन्तमें सब चले गये। इस प्रकार विचार करनेसे भी वैराग्य हो जाता है।(3) जिन्होंने भोग नहीं भोगे हैं? जिनके पास भोगसामग्री नहीं है? जो संसारसे विरक्त

हैं? उनकी अपेक्षा जिन्होंने बहुत भोग भोगे हैं और भोग रहे हैं? उनमें क्या विलक्षणता? विशेषता आयी कुछ नहीं? प्रत्युत भोग भोगनेवाले तो शोकचिन्तामें डूबे हुए हैं। ऐसा विचार करनेसे भी वैराग्य होता है।अनहंकार एव च -- प्रत्येक व्यक्तिके अनुभवमें मैं हूँ -- इस प्रकारकी एक वृत्ति होती है। यह वृत्ति ही शरीरके साथ मिलकर मैं शरीर हूँ -- इस प्रकार एकदेशीयता अर्थात् अहंकार उत्पन्न कर देती है। इसीके कारण शरीर?

नाम? क्रिया? पदार्थ? भाव? ज्ञान? त्याग? देश? काल आदिके साथ अपना सम्बन्ध मानकर जीव ऊँचनीच योनियोंमें जन्मतामरता रहता है (गीता 13। 21)। यह अहंकार साधनमें प्रायः बहुत दूरतक रहता है। वास्तवमें इसकी सत्ता नहीं है? फिर भी स्वयंकी मान्यता होनेके कारण व्यक्तित्वके रूपमें इसका भान होता रहता है। भगवान्द्वारा ज्ञानके साधनोंमें इस पदका प्रयोग किये जानेका तात्पर्य शरीरादिमें माने हुए अहंकारका सर्वथा अभाव करनेमें

है क्योंकि जडचेतनका यथार्थ बोध होनेपर इसका सर्वथा अभाव हो जाता है। मनुष्यमात्र अहंकाररहित हो सकता है? इसीलिये भगवान् यहाँ अनहंकारः पदसे अहंकारका त्याग करनेकी बात कहते हैं।अभिमान और अहंकारका प्रयोग एक साथ होनेपर उनसे अलगअलग भावोंका बोध होता है। सांसारिक चीजोंके सम्बन्धसे अभिमान पैदा होता है। ऐसे ही त्याग? वैराग्य? विद्या आदिको लेकर अपनेमें विशेषता देखनेसे भी अभिमान पैदा होता है। शरीरको ही अपना स्वरूप

माननेसे अंहकार पैदा होता है। यहाँ,अनहंकारः पदसे अभिमान और अहंकार -- दोनोंके सर्वथा अभावका अर्थ लेना चाहिये।मनुष्यको नींदसे जगनेपर सबसे पहले अहम् अर्थात् मैं हूँ -- इस वृत्तिका ज्ञान होता है। फिर मैं अमुक शरीर? नाम? जाति? वर्ण? आश्रम आदिका हूँ -- ऐसा अभिमान होता है। यह एक क्रम है। इसी प्रकार पारमार्थिक मार्गमें भी अहंकारके नाशका एक क्रम है। सबसे पहले स्थूलशरीरसे सम्बन्धित धनादि पदार्थोंका अभिमान मिटता

है। फिर कर्मेन्द्रियोंके सम्बन्धसे रहनेवाले कर्तृत्वाभिमानका नाश होता है। उसके बाद बुद्धिकी प्रधानतासे रहनेवाला ज्ञातापनका अहंकार मिटता है। अन्तमें अहम् वृत्तिकी प्रधानतासे जो साक्षीपनका अहंकार है? वह भी मिट जाता है। तब सर्वत्र परिपूर्ण सच्चिदानन्दघन स्वरूप स्वतः रह जाता है।उपाय -- (1) अपनेमें श्रेष्ठताकी भावनासे ही अभिमान पैदा होता है। अभिमान तभी होता है? जब मनुष्य दूसरोंकी तरफ देखकर यह सोचता है

कि वे मेरी अपेक्षा तुच्छ है। जैसे? गाँवभरमें एक ही लखपति हो तो दूसरोंको देखकर उसको लखपति होनेका अभिमान होता है। परन्तु अगर दूसरे सभी करोड़पति हों तो उसको अपने लखपति होनेका अभिमान नहीं होता। अतः अभिमानरूप दोषको मिटानेके लिये साधकको चाहिये कि वह दूसरोंकी कमीकी तरफ कभी न देखे? प्रत्युत अपनी कमियोंको देखकर उनको दूर करे (टिप्पणी प0 681.1)।(2) एक ही आत्मा जैसे इस शरीरमें व्याप्त है? ऐसे ही वह अन्य शरीरोंमें

भी व्याप्त है -- सर्वगतः (गीता 2। 24)। परन्तु मनुष्य अज्ञानसे सर्वव्यापी आत्माको एक अपने शरीरमें ही सीमित मानकर शरीरको मैं मान लेता है। जैसे मनुष्य बैंकमें रखे हुए बहुतसे रुपयोंमेंसे केवल अपने द्वारा जमा किये हुए कुछ रुपयोंमें ही ममता करके? उनके साथ अपना सम्बन्ध मानकर अपनेको धनी मान लेता है? ऐसे ही एक शरीरमें मैं शरीर हूँ -- ऐसी अहंता करके वह कालसे सम्बन्ध मानकर मैं इस समयमें हूँ? देशसे सम्बन्ध मानकर

मैं यहाँ हूँ? बुद्धिसे सम्बन्ध मानकर मैं समझदार हूँ? वाणीसे सम्बन्ध मानकर मैं वक्ता हूँ आदि अहंकार कर लेता है। इस प्रकारके सम्बन्ध न मानना ही अहंकार रहित होनेका उपाय है। (3) शास्त्रोंमें परमात्माका सच्चिदानन्दघनरूपसे वर्णन आया है। सत् (सत्ता)? चित् (ज्ञान) और आनन्द (अविनाशी सुख) -- ये तीनों परमात्माके भिन्नभिन्न स्वरूप नही हैं? प्रत्युत एक ही परमात्मतत्त्वके तीन नाम हैं। अतः साधक इन तीनोंमेंसे किसी

एक विशेषणसे भी परमात्माका लक्ष्य करके निर्विकल्प (टिप्पणी प0 681.2) हो सकता है। निर्विकल्प होनेसे उसको परमात्मतत्त्वमें अपनी स्वतःसिद्ध स्थितिका,अनुभव हो जाता है और अहंकारका सर्वथा नाश हो जाता है। इसको इस प्रकार समझना चाहिये -- (क) सत् -- परमात्मतत्त्व सदासे ही था? सदासे है और सदा ही रहेगा। वह कभी बनताबिगड़ता नहीं? कमज्यादा भी नहीं होता? सदा ज्योंकात्यों रहता है -- ऐसा बुद्धिके द्वारा विचार करके

निर्विकल्प होकर स्थिर हो जानेसे साधकका बुद्धिसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और उस सत्तत्त्वमें अपनी वास्तविक स्थितिका अनुभव हो जाता है। ऐसा अनुभव होनेपर फिर अहंकार नहीं रहता।(ख) चित् -- जैसे प्रत्येक व्यक्तिके शरीरादि अहम् के अन्तर्गत दृश्य हैं? ऐसे ही अहम् भी (मैं? तू? यह और वहके रूपमें) एक ज्ञानके अन्तर्गत दृश्य है (टिप्पणी प0 681.3)। उस ज्ञान(चेतन) में निर्विकल्प होकर स्थिर हो जानेसे परमात्मतत्त्वमें

स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है। फिर अहंकार नहीं रहता।(ग) आनन्द -- साधकलोग प्रायः बुद्धि और अहम्को प्रकाशित करनेवाले चेतनको भी बुद्धिके द्वारा ही जाननेकी चेष्टा किया करते हैं। वास्तवमें बुद्धिके द्वारा जाने अर्थात् सीखे हुए विषयको ज्ञान की संज्ञा देना और उससे अपनेआपको ज्ञानी मान लेना भूल ही है। बुद्धिको प्रकाशित करनेवाला तत्त्व बुद्धिके द्वारा कैसे जाना जा सकता है यद्यपि साधकके पास बुद्धिके

सिवाय ऐसा और कोई साधन नहीं है? जिससे वह तत्त्व जाना जा सके? तथापि बुद्धिके द्वारा केवल जड संसारकी वास्तविकताको ही जाना जा सकता है। बुद्धि जिससे प्रकाशित होती है? उस तत्त्वको बुद्धि नहीं जान सकती। उस तत्त्वको जाननेके लिये बुद्धिसे भी सम्बन्धविच्छेद करना आवश्यक है। बुद्धिको प्रकाशित करनेवाले परमात्मतत्त्वमें निर्विकल्परूपसे स्थित हो जानेपर बुद्धिसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। फिर एक आनन्दस्वरूप

(जहाँ दुःखका लेश भी नहीं है) परमात्मतत्त्व ही शेष रह जाता है? जो स्वयं ज्ञानस्वरूप और सत्स्वरूप भी है। इस प्रकार तत्त्वमें निर्विकल्प (चुप) हो जानेपर आनन्दहीआनन्द है -- ऐसा अनुभव होता है। ऐसा अनुभव होनेपर फिर अहंकार नहीं रहता।जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् -- जन्म? मृत्यु? वृद्धावस्था और रोगोंके दुःखरूप दोषोंको बारबार देखनेका तात्पर्य है -- जैसे आँवामें मटका पकता है? ऐसे ही जन्मसे पहले माताके

उदरमें बच्चा जठराग्निमें पकता रहता है। माताके खाये हुए नमक? मिर्च आदि क्षार और तीखे पदार्थोंसे बच्चेके शरीरमें जलन होती है। गर्भाशयमें रहनेवाले सूक्ष्म जन्तु भी बच्चेको काटते रहते हैं। प्रसवके समय माताको जो पीड़ा होती है? उसका कोई अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता। वैसी ही पीड़ा उदरसे बाहर आते समय बच्चेको होती है। इस तरह जन्मके दुःखरूप दोषोंका बारबार विचार करके इस विचाको दृढ़ करना कि इसमें केवल दुःखहीदुःख

है। जो जन्मता है? उसको मरना ही पड़ता है -- यह नियम है। इससे कोई बच ही नहीं सकता। मृत्युके समय जब प्राण शरीरसे निकलते हैं? तब हजारों बिच्छू शरीरमें एक साथ डंक मारते हों -- ऐसी पीड़ा होती है। उम्रभरमें कमाये हुए धनसे? उम्रभरमें रहे हुए मकानसे और अपने परिवारसे जब वियोग होता है और फिर उनके मिलनेकी सम्भावना नहीं रहती? तब (ममताआसक्तिके कारण) बड़ा भारी दुःख होता है। जिस धनको कभी किसीको दिखाना नहीं चाहता

था? जिस धनको परिवारवालोंसे छिपाछिपाकर तिजोरीमें रखा था? उसकी चाबी परिवारवालोंके हाथमें पड़ी देखकर मनमें असह्य वेदना होती है। इस तरह मृत्युके दुःखरूप दोषोंको बारबार देखे।वृद्धावस्थामें शरीर और अवयवोंकी शक्ति क्षीण हो जाती है? जिससे चलनेफिरने? उठनेबैठनेमें कष्ट होता है। हरेक तरहका भोजन पचता नहीं। बड़ा होनेके कारण परिवारसे आदर चाहता है? पर कोई प्रयोजन न रहनेसे घरवाले निरादर? अपमान करते हैं। तब मनमें

पहलेकी बातें याद आती हैं कि मैंने धम कमाया है?,इनको पालापोसा है? पर आज ये मेरा तिरस्कार कर रहे हैं इन बातोंको लेकर बड़ा दुःख होता है। इस तरह वृद्धावस्थाके दुःखरूप दोषोंको बारबार देखे।यह शरीर व्याधियोंका? रोगोंका घर है -- शरीरं व्याधिमन्दिरम्। शरीरमें वात? कफ आदिसे पैदा होनेवाले अनेक प्रकारके रोग होते रहते हैं और न रोगोंसे शरीरमें बड़ी पीड़ा होती है। इस तरह रोगोंके दुःखरूप दोषोंको बारबार देखे।यहाँ

बारबार देखनेका तात्पर्य बारबार चिन्तन करनेसे नहीं है? प्रत्युत विचार करनेसे है। जन्म? मृत्यु? वृद्धावस्था और रोगोंके दुःखोंको बारबार देखनेसे अर्थात् विचार करनेसे उनके मूल कारण -- उत्पत्तिविनाशशील पदार्थोंमें राग स्वाभाविक ही कम हो जाता है अर्थात् भोगोंसे वैराग्य हो जाता है। तात्पर्य है कि जन्म? मृत्यु आदिके दुःखरूप दोषोंको देखना भोगोंसे वैराग्य होनेमें हेतु है क्योंकि भोगोंके रागसे अर्थात् गुणोंके

सङ्गसे ही जन्म होता है -- कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता 13। 21) और जो जन्म होता है? वह सम्पूर्ण दुःखोंका कारण है। भगवान्ने पुनर्जन्मको दुःखालय बताया है -- पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् (गीता 8। 15)।शरीर आदि जड पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे? उनको महत्त्व देनेसे? उनका आश्रय लेनेसे ही सम्पूर्ण दोष उत्पन्न होते हैं -- देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति। परमात्माका स्वरूप अथवा उसका ही

अंश होनेके ही कारण जीवात्मा स्वयं निर्दोष है -- चेतन अमल सहज सुखरासी (मानस 7। 117। 1)। यही कारण है कि जीवात्माको दुःख और दोष अच्छे नहीं लगते क्योंकि वे इसके सजातीय नहीं हैं। जीव अपने द्वारा ही पैदा किये दोषोंके कारण सदा दुःख पाता रहता है। अतः भगवान् जन्म? मृत्यु आदिके दुःखरूप दोषोंके मूल कारण देहाभिमानको विचारपूर्वक मिटानेके लिये कह रहे हैं। ।।13.10।। व्याख्या --   असक्तिः -- उत्पन्न होनेवाली (सांसारिक)

वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति आदिमें जो प्रियता है? उसको सक्ति कहते हैं। उस सक्तिसे रहित होनेका नाम असक्ति है।सांसारिक वस्तुओं? व्यक्तियों आदिसे सुख लेनेकी इच्छासे? सुखकी आशासे और सुखके भोगसे ही मनुष्यकी उनमें आसक्ति? प्रियता होती है। कारण कि मनुष्यको संयोगके सिवाय सुख नहीं दीखता? इसलिये उसको संयोगजन्य सुख प्रिय लगता है। परन्तु वास्तविक सुख संयोगके वियोगसे होता है (गीता 6। 23)? इसलिये साधकके लिये

सांसारिक आसक्तिका त्याग करना बहुत आवश्यक है।उपाय -- संयोगजन्य सुख आरम्भमें तो अमृतकी तरह दीखता है? पर परिणाममें विषकी तरह होता है (गीता 18। 38)। संयोगजन्य सुख भोगनेवालेको परिणाममें दुःख भोगना ही पड़ता है -- यह नियम है। अतः संयोगजन्य सुखके परिणामपर दृष्टि रखनेसे उसमें आसक्ति नहीं रहती।अनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु -- पुत्र? स्त्री? घर? धन? जमीन? पशु आदिके साथ माना हुआ जो घनिष्ठ सम्बन्ध है? गाढ़ मोह

है? तादात्म्य है? मानी हुई एकात्मता है? जिसके कारण शरीरपर भी असर पड़ता है? उसका नाम अभिष्वङ्ग है (टिप्पणी प0 683)। जैसे -- पुत्रके साथ माताकी एकात्मता रहनेके कारण जब पुत्र बीमार हो जाता है? तब माताका शरीर कमजोर हो जाता है। ऐसे ही पुत्रके? स्त्रीके मर जानेपर मनुष्य कहता है कि मैं मर गया? धनके चले जानेपर कहता है कि मैं मारा गया? आदि। ऐसी एकात्मतासे रहित होनेके लिये यहाँ अनभिष्वङ्गः पद आया है।उपाय --

जिनके साथ अपना घनिष्ठ सम्बन्ध दीखे? उनकी सेवा करे? उनको सुख पहुँचाये? पर उनसे सुख लेनेका उद्देश्य न रखे। उद्देश्य तो उनसे अभिष्वङ्ग (तादात्म्य) दूर करनेका ही रखे। अगर उनसे सेवा,लेनेका उद्देश्य रखेंगे तो उनसे तादात्म्य हो जायगा। हाँ? उनकी प्रसन्नताके लिये कभी उनसे सेवा लेनी भी पड़े तो उसमें राजी न हो क्योंकि राजी होनेसे अभिष्वङ्ग हो जायगा। तात्पर्य है कि किसीके साथ अपनेको लिप्त न करे। इस बातकी बहुत

सावधानी रखे।नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु -- इष्ट अर्थात् मनके अनुकूल वस्तु? व्यक्ति? परिस्थिति? घटना आदिके प्राप्त होनेपर चित्तमें राग? हर्ष? सुख आदि विकार न हो और अनिष्ट अर्थात् मनके प्रतिकूल वस्तु? व्यक्ति आदिके प्राप्त होनेपर चित्तमें द्वेष? शोक? दुःख? उद्वेग आदि विकार न हो। तात्पर्य है कि अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियोंके प्राप्त होनेपर चित्तमें निरन्तर समता रहे? चित्तपर उसका कोई असर

न पड़े। इसको भगवान्ने सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा (2। 48)। पदोंसे भी कहा है।उपाय -- मनुष्यको जो कुछ अनुकूल सामग्री मिली है? उसको वह अपने लिये मानकर सुख भोगता है -- यह महान् बाधक है। कारण कि संसारकी सामग्री केवल संसारकी सेवामें लगानेके लिये ही मिली है? अपने शरीरइन्द्रियोंको सुख पहुँचानेके लिये नहीं। ऐसे ही मनुष्यको जो कुछ प्रतिकूल सामग्री मिली है? वह दुःख भोगनेके लिये नहीं मिली है? प्रत्युत संयोगजन्य

सुखका त्याग करनेके लिये? मनुष्यको सांसारिक राग? आसक्ति? कामना? ममता आदिसे छुड़ानेके लिये ही मिली है। तात्पर्य है कि अनुकूल और प्रतिकूल -- दोनों परिस्थितियाँ मनुष्यको सुखदुःखसे ऊँचा उठाकर (उन दोनोंसे अतीत) परमात्मतत्त्वको प्राप्त करानेके लिये ही मिली हैं -- ऐसा दृढ़तासे मान लेनेसे साधकका चित्त इष्ट और अनिष्टकी प्राप्तिमें स्वतः सम रहेगा। ।।13.11।। व्याख्या --   मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी --

संसारका आश्रय लेनेके कारण साधकका देहाभिमान बना रहता है। यह देहाभिमान अव्यक्तके ज्ञानमें प्रधान बाधा है। इसको दूर करनेके लिये भगवान् यहाँ तत्त्वज्ञानका उद्देश्य रखकर अनन्ययोगद्वारा अपनी अव्यभिचारिणी भक्ति करनेका साधन बता रहे हैं। तात्पर्य है कि भक्तिरूप साधनसे भी देहाभिमान सुगमतापूर्वक दूर हो सकता है।भगवान्के सिवाय और किसीसे कुछ भी पानेकी इच्छा न हो अर्थात् भगवान्के सिवाय मनुष्य? गुरु? देवता? शास्त्र

आदि मेरेको उस तत्त्वका अनुभव करा सकते हैं तथा अपने बल? बुद्धि? योग्यतासे मैं उस तत्त्वको प्राप्त कर लूँगा -- इस प्रकार किसी भी वस्तु? व्यक्ति आदिका सहारा न हो और भगवान्की कृपासे ही मेरेको उस तत्त्वका अनुभव होगा -- इस प्रकार केवल भगवान्का ही सहारा हो -- यह भगवान्में अनन्ययोग होना है।अपना सम्बन्ध केवल भगवान्के साथ ही हो? दूसरे किसीके साथ किञ्चिन्मात्र भी अपना सम्बन्ध न हो -- यह भगवान्में अव्यभिचारिणी

भक्ति होना है।तात्पर्य है कि तत्त्वप्राप्तिका साधन (उपाय) भी भगवान् ही हों और साध्य (उपेय) भी भगवान् ही हों -- यही अनन्ययोगके द्वारा भगवान्में अव्यभिचारिणी भक्तिका होना है।जिस साधकमें ज्ञानके साथसाथ भक्तिके भी संस्कार हों? उसके लिये यह साधन बहुत उपयोगी है। भक्तिपरायण साधक अगर तत्त्वज्ञानका उद्देश्य रखकर एकमात्र भगवान्का ही आश्रय ग्रहण करता है? तो केवल इसी साधनसे तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति कर सकता है।

गुणातीत होनेके उपायोंमें भी भगवान्ने अव्यभिचारिणी भक्तिकी बात कही है (गीता 14। 26)। शङ्का -- यहाँ तो भक्तिसे तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति बतायी गयी है और अठारहवें अध्यायके चौवनवेंपचपनवें श्लोकोंमें ज्ञानसे भक्तिकी प्राप्ति कही गयी है? ऐसा क्योंसमाधान -- जैसे भक्ति दो प्रकारकी होती है -- साधनभक्ति और साध्यभक्ति? ऐसे ही ज्ञान भी दो प्रकारका होता है -- साधनज्ञान और साध्यज्ञान। साध्यभक्ति और साध्यज्ञान --

दोनों तत्त्वतः एक ही हैं। साधनभक्ति और साधनज्ञान -- ये दोनों साध्यभक्ति अथवा साध्यज्ञानकी प्राप्तिके साधन हैं। अतः जहाँ भक्तिसे तत्त्वज्ञान(साध्यज्ञान) की प्राप्तिकी बात कही है? वह भी ठीक है और जहाँ ज्ञानसे पराभक्ति(साध्यभक्ति) की प्राप्तिकी बात कही है? वह भी ठीक है। अतः साधकको चाहिये कि उसमें कर्म? ज्ञान अथवा भक्ति -- जिस संस्कारकी प्रधानता हो? उसीके अनुरूप साधनमें लग जाय। सावधानी केवल इतनी रखे कि

उद्देश्य केवल परमात्माका ही हो? प्रकृति अथवा उसके कार्यका नहीं। ऐसा उद्देश्य होनेपर वह उसी साधनसे परमात्माको प्राप्त कर लेता है।शङ्का -- भगवान्ने ज्ञानके साधनोंमें अपनी भक्तिको किसलिये बताया क्या ज्ञानयोगका साधक भगवान्की भक्ति भी करता हैसमाधान -- ज्ञानयोगके साधक (जिज्ञासु) दो प्रकारके होते हैं -- भावप्रधान (भक्तिप्रधान) और विवेकप्रधान (ज्ञानप्रधान)।(1) भावप्रधान जिज्ञासु वह है? जो भगवान्का आश्रय

लेकर तत्त्वको जानना चाहता है (गीता 7। 16 13। 18)। इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें माम्? मम्? तीसरे श्लोकमें मे? इस (दसवें) श्लोकमें मयि और अठारहवें श्लोकमें मद्भक्तः तथा मद्भावाय पदोंके आनेसे सिद्ध होता है कि अठारहवें श्लोकतक भावप्रधान जिज्ञासुका प्रकरण है। परन्तु उन्नीसवेंसे चौंतीसवें श्लोकतक एक बार भी अस्मद् (मैं वाचक) पदका प्रयोग नहीं हुआ है? इसलिये वहाँ विवेकप्रधान जिज्ञासुका प्रकरण है। अतः यहाँ भावप्रधान

जिज्ञासुका प्रसङ्ग होनेसे ज्ञानके साधनोंके अन्तर्गत भक्तिरूप साधनका वर्णन किया गया है।दूसरी बात? जैसे सात्त्विक भोजनमें पुष्टिके लिये घी या दूधकी आवश्यकता होती है? तो वहाँ घी और दूध सात्त्विक भोजनके साथ मिलकर भी पुष्टि करते हैं और अकेलेअकेले भी पुष्टि करते हैं। ऐसे ही भगवान्की भक्ति ज्ञानके साधनोंमें मिलकर भी परमात्मप्राप्तिमें सहायक होती है और अकेली भी गुणातीत बना देती है (गीता 14। 26)। पातञ्जलयोगदर्शनमें

भी परमात्मप्राप्तिके लिये अष्टाङ्गयोगके साधनोंमें सहायकरूपसे ईश्वरप्रणिधान अर्थात् भक्तिरूप नियम कहा है (टिप्पणी प0 684.1) और उसी भक्तिको स्वतन्त्ररूपसे भी कहा है (टिप्पणी प0 684.2)। इससे सिद्ध होता है कि भक्तिरूप साधन अपनी एक अलग विशेषता रखता है। इस विशेषताके कारण भी ज्ञानके साधनोंमें भक्तिका वर्णन किया गया है।(2) विवेकप्रधान जिज्ञासु वह है? जो सत्असत्का विचार करते हुए तीव्र विवेकवैराग्यसे युक्त

होकर तत्त्वको जानना चाहता है (गीता 13। 19 -- 34)।विचार करके देखा जाय तो आजकल आध्यात्मिक जिज्ञासाकी कमी और भोगासक्तिकी बहुलताके कारण विवेकप्रधान जिज्ञासु बहुत कम देखनेमें आते हैं। ऐसे साधकोंके लिये भक्तिरूप साधन बहुत उपयोगी है। अतः यहाँ भक्तिका वर्णन करना युक्तिसंगत प्रतीत होता है।उपाय -- केवल भगवान्को ही अपना मानना और भगवान्का ही आश्रय लेकर श्रद्धाविश्वासपूर्वक भगवन्नामका जप? कीर्तन? चिन्तन? स्मरण

आदि करना ही भक्तिका सुगम उपाय है।विविक्तदेशसेवित्वम् -- मैं एकान्तमें रहकर परमात्मतत्त्वका चिन्तन करूँ? भजनस्मरण करूँ? सत्शास्त्रोंका स्वाध्याय करूँ? उस तत्त्वको गहरा उतरकर समझूँ? मेरी वृत्तियोंमें और मेरे साधनमें कोई भी विघ्नबाधा न पड़े? मेरे साथ कोई न रहे और मैं किसीके साथ न रहूँ -- साधककी ऐसी स्वाभाविक अभिलाषाका नाम,विविक्तदेशसेवित्व है। तात्पर्य यह हुआ कि साधककी रुचि तो एकान्तमें रहनेकी ही होनी

चाहिये? पर ऐसा एकान्त न मिले तो मनमें किञ्चिन्मात्र भी विकार नहीं होना चाहिये। उसके मनमें यही विचार होना चाहिये कि संसारके सङ्गका? संयोगका तो स्वतः ही वियोग हो रहा है और स्वरूपमें असङ्गता स्वतःसिद्ध है। इस स्वतःसिद्ध असङ्गतामें संसारका सङ्ग? संयोग? सम्बन्ध कभी हो ही नहीं सकता। अतः संसारका सङ्ग कभी बाधक हो ही नहीं सकता।केवल निर्जन वन आदिमें जाकर और अकेले पड़े रहकर यह मान लेना कि मैं एकान्त स्थानमें

हूँ वास्तवमें भूल ही है क्योंकि सम्पूर्ण संसारका बीज यह शरीर तो साथमें है ही। जबतक इस शरीरके साथ सम्बन्ध है? तबतक सम्पूर्ण संसारके साथ सम्बन्ध बना ही हुआ है। अतः एकान्त स्थानमें जानेका लाभ तभी है? जब देहाभिमानके नाशका उद्देश्य मुख्य हो।वास्तविक एकान्त वह है? जिसमें एक तत्त्वके सिवाय दूसरी कोई चीज न उत्पन्न हुई? न है और न होगी। जिसमें न इन्द्रियाँ हैं? न प्राण हैं? न मन है और न अन्तःकरण है। जिसमें

न स्थूलशरीर है? न सूक्ष्मशरीर है और न कारण शरीर है। जिसमें न व्यष्टि शरीर है और न समष्टि संसार है। जिसमें केवल एक तत्त्वहीतत्त्व है अर्थात् एक तत्त्वके सिवाय और कुछ है ही नहीं। कारण कि एक परमात्मतत्त्वके सिवाय पहले भी कुछ नहीं था और अन्तमें भी कुछ नहीं रहेगा। बीचमें जो कुछ प्रतीत हो रहा है? वह भी प्रतीतिके द्वारा ही प्रतीत हो रहा है अर्थात् जिनसे संसार प्रतीत हो रहा है? वे इन्द्रियाँ अन्तःकरण आदि

भी स्वयं प्रतीति ही हैं। अतः प्रतीतिके द्वारा ही प्रतीति हो रही है। हमारा (स्वरूपका) सम्बन्ध शरीर और अन्तःकरणके साथ कभी हुआ ही नहीं क्योंकि शरीर और अन्तःकरण प्रकृतिका कार्य है और स्वरूप सदा ही प्रकृतिसे अतीत है। इस प्रकार अनुभव करना ही वास्तवमें विविक्तदेशसेवित्व है।अरतिर्जनसंसदि -- साधारण मनुष्यसमुदायमें प्रीति? रुचि न हो अर्थात् कहाँ क्या हो रहा है? कब क्या होगा? कैसे होगा आदिआदि सांसारिक बातोंको

सुननेकी कोई भी इच्छा न हो तथा समाचार सुनानेवाले लोगोंसे मिलें? कुछ समाचार प्राप्त करें -- ऐसी किञ्चिन्मात्र भी इच्छा? प्रीति न हो। परन्तु हमारेसे कोई तत्त्वकी बात पूछना चाहता है? साधनके विषयमें चर्चा करना चाहता है? उससे मिलनेके लिये मनमें जो इच्छा होती है? वह अरतिर्जनसंसदि नहीं है। ऐसे ही जहाँ तत्त्वकी बात होती हो? आपसमें तत्त्वका विचार होता हो अथवा हमारी दृष्टिमें कोई परमात्मतत्त्वको जाननेवाला हो?

ऐसे पुरुषोंके सङ्गकी जो रुचि होती है? वह जनसमुदायमें रुचि नहीं कहलाती? प्रत्युत वह तो आवश्यक है। कहा भी गया है -- सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत्त्युक्तं न शक्यते। स सद्भिः सह कर्तव्यः सतां सङ्गो हि भेषजम्।।अर्थात् आसक्तिपूर्वक किसीका भी सङ्ग नहीं करना चाहिये परन्तु अगर ऐसी असङ्गता न होती हो? तो श्रेष्ठ पुरुषोंका सङ्ग करना चाहिये। कारण कि श्रेष्ठ पुरुषोंका सङ्ग असङ्गता प्राप्त करनेकी औषध है। ।।13.12।। व्याख्या

--   अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम् -- सम्पूर्ण शास्त्रोंका तात्पर्य मनुष्यको परमात्माकी तरफ लगानेमें? परमात्मप्राप्ति करानेमें है -- ऐसा निश्चय करनेके बाद परमात्मतत्त्व जितना समझमें आया है? उसका मनन करे। युक्तिप्रयुक्तिसे देखा जाय तो परमात्मतत्त्व भावरूपसे पहले भी था? अभी भी है और आगे भी रहेगा। परन्तु संसार पहले भी नहीं था और आगे भी नहीं रहेगा तथा अभी भी प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है। संसारकी तो उत्पत्ति

और विनाश होता है? पर उसका जो आधार? प्रकाशक है? वह परमात्मतत्त्व नित्यनिरन्तर रहता है। उस परमात्मतत्त्वके सिवाय संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। परमात्माकी सत्तासे ही संसार सत्तावाला दीखता है। इस प्रकार संसारकी स्वतन्त्र सत्ताके अभावका और परमात्माकी सत्ताका नित्यनिरन्तर मनन करते रहना अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम् है।उपाय -- आध्यात्मिक ग्रन्थोंका पठनपाठन? तत्त्वज्ञ महापुरुषोंसे तत्त्वज्ञानविषयक श्रवण

और प्रश्नोत्तर करना।तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् -- तत्त्वज्ञानका अर्थ है -- परमात्मा। उस परमात्माका ही सब जगह दर्शन करना? उसका ही सब जगह अनुभव करना तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् है। वह परमात्मा सब देश? काल? वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति आदिमें ज्योंकात्यों परिपूर्ण है। एकान्तमें अथवा व्यवहारमें? सब समय साधककी दृष्टि? उसका लक्ष्य केवल उस परमात्मापर ही रहे। एक परमात्माके सिवाय उसको दूसरी कोई सत्ता दीखे ही नहीं।

सब जगह? सब समय समभावसे परिपूर्ण परमात्माको ही देखनेका उसका स्वभाव बन जाय -- यही,तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् है। इसके सिद्ध होनेपर साधकको परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है।एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा -- अमानित्वम् से लेकर तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् तक ये जो बीस साधन कहे गये हैं? ये सभी साधन देहाभिमान मिटानेवाले होनेसे और परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें सहायक होनेसे ज्ञान नामसे कहे गये हैं। इन साधनोंसे

विपरीत मानित्व? दम्भित्व? हिंसा आदि जितने भी दोष हैं? वे सभी देहाभिमान बढ़ानेवाले होनेसे और परमात्मतत्त्वसे विमुख करनेवाले होनेसे अज्ञान नामसे कहे गये हैं।विशेष बातयदि साधकमें इतना तीव्र विवेक जाग्रत् हो जाय कि वह शरीरसे माने हुए सम्बन्धका त्याग कर सके? तो उसमें यह साधनसमुदाय स्वतः प्रकट हो जाता है। फिर उसको इन साधनोंका अलगअलग अनुष्ठान करनेकी आवश्यकता नहीं पड़ती। विनाशी शरीरको अपने अविनाशी स्वरूपसे

अलग देखना मूल साधन है। अतः सभी साधकोंको चाहिये कि वे शरीरको अपनेसे अलग अनुभव करें? जो कि वास्तवमें अलग ही हैपूर्वोक्त किसी भी साधनका अनुष्ठान करनेके लिये मुख्यतः दो बातोंकी आवश्यकता है -- (1) साधकका उद्देश्य केवल परमात्माको प्राप्त करना हो और (2) शास्त्रोंको पढ़तेसुनते समय यदि विवेकद्वारा शरीरको अपनेसे अलग समझ ले? तो फिर दूसरे समयमें भी उसी विवेकपर स्थिर रहे। इन दो बातोंके दृढ़ होनेसे साधनसमुदायके

सभी साधन सुगम हो जाते हैं।शरीर तो बदल गया? पर मैं वही हूँ? जो कि बचपनमें था -- यह सबके अनुभवकी बात है। अतः शरीरके साथ अपना सम्बन्ध वास्तविक न होकर केवल माना हुआ है -- ऐसा निश्चय होनेपर ही वास्तविक साधन आरम्भ होता है। साधककी बुद्धि जितने अंशमें परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यको धारण करती है? उतने ही अंशमें उसमें विवेककी जागृति तथा संसारसे वैराग्य हो जाता है। भगवान्ने विवेक और वैराग्यको पुष्ट करनेके लिये

ज्ञानके आवश्यक साधनोंका वर्णन किया है।जब मनुष्यका उद्देश्य परमात्मप्राप्ति करना ही हो जाता है? तब दुर्गुणों एवं दुराचारोंकी जड़ कट जाती है? चाहे साधकको इसका अनुभव हो या न हो जैसे वृक्षकी जड़ कटनेपर भी बड़ी टहनीपर लगे हुए पत्ते कुछ दिनतक हरे दीखते हैं किन्तु वास्तवमें उन पत्तोंके हरेपनकी भी जड़ कट चुकी है। इसलिये कुछ दिनोंके बाद कटी हुई टहनीके पत्तोंका हरापन मिट जाता है। ऐसे ही परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिका

दृढ़ उद्देश्य होते ही दुर्गुणदुराचार मिट जाते हैं। यद्यपि साधकको आरम्भमें ऐसा अनुभव नहीं होता और उसको अपनेमें अवगुण दीखते हैं? तथापि कुछ समयके बाद उनका सर्वथा अभाव दीखने लग जाता है।साधन करते समय कभीकभी साधकको अपनेमें दुर्गुण दिखायी दे सकते हैं। परन्तु वास्तवमें साधनमें लगनेसे पहले उसमें जो दुर्गुण रहे थे? वे ही जाते हुए दिखायी देते हैं। यह नियम है कि दरवाजेसे आनेवाले,और जानेवाले -- दोनों ही दिखायी

देते हैं। यदि साधन करते समय अपनेमें दुर्गुण बढ़ते हुए दीखते हों? तो समझना चाहिये कि दुर्गुण आ रहे हैं। परन्तु यदि अपनेमें दुर्गुण कम होते हुए दीखते हों? तो समझना चाहिये कि दुर्गुण जा रहे हैं। ऐसी अवस्थामें साधकको निराश नहीं होना चाहिये? प्रत्युत अपने उद्देश्यपर दृढ़ रहकर तत्परतापूर्वक साधनमें लगे रहना चाहिये। इस प्रकार साधनमें लगे रहनेसे दुर्गुणदुराचारोंका सर्वथा अभाव हो जाता है। सम्बन्ध --   पूर्वोक्त ज्ञान(साधनसमुदाय) के द्वारा जिसको जाना जाता है? उस साध्यतत्त्वका अब ज्ञेय नामसे वर्णन आरम्भ करते हैं।

भगवद गीता 13.8-12 - अध्याय 13 श्लोक 8-12 हिंदी और अंग्रेजी