Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।शुभाशुभपरित्यागी भक्ितमान्यः स मे प्रियः।।12.17।।

yo na hṛiṣhyati na dveṣhṭi na śhochati na kāṅkṣhati śhubhāśhubha-parityāgī bhaktimān yaḥ sa me priyaḥ

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Word Meanings

yaḥwho
naneither
hṛiṣhyatirejoice
nanor
dveṣhṭidespair
naneither
śhochatilament
nanor
kāṅkṣhatihanker for gain
śhubha-aśhubha-parityāgīwho renounce both good and evil deeds
bhakti-mānfull of devotion
yaḥwho
saḥthat person
meto me
priyaḥvery dear
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अनुवाद

।।12.17।।जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है और जो शुभ-अशुभ कर्मोंमें राग-द्वेषका त्यागी है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।

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टीका

।।12.17।। व्याख्या--'यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति'--मुख्य विकार चार हैं -- (1) राग, (2) द्वेष, (3) हर्ष और (4) शोक (टिप्पणी प0 656.2)। सिद्ध भक्तमें ये चारों ही विकार नहीं होते। उसका यह अनुभव होता है कि संसारका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है और भगवान्से कभी वियोग होता ही नहीं। संसारके साथ कभी संयोग था नहीं, है नहीं, रहेगा नहीं और रह सकता भी नहीं। अतः संसारकी कोई,स्वतन्त्र सत्ता नहीं है --

इस वास्तविकताका अनुभव कर लेनेके बाद (जडताका कोई सम्बन्ध न रहनेपर) भक्तका केवल भगवान्के साथ अपने नित्यसिद्ध सम्बन्धका अनुभव अटलरूपसे रहता है। इस कारण उसका अन्तःकरण राग-द्वेषादि विकारोंसे सर्वथा मुक्त होता है। भगवान्का साक्षात्कार होनेपर ये विकार सर्वथा मिट जाते हैं।   साधनावस्थामें भी साधक ज्यों-ज्यों साधनमें आगे बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों उसमें राग-द्वेषादि कम होते चले जाते हैं। जो कम होनेवाला होता

है, वह मिटनेवाला भी होता है। अतः जब साधनावस्थामें ही विकार कम होने लगते हैं, तब सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सिद्धावस्थामें भक्तमें ये विकार नहीं रहते, पूर्णतया मिट जाते हैं।   हर्ष और शोक -- दोनों राग-द्वेषके ही परिणाम हैं। जिसके प्रति राग होता है, उसके संयोगसे और जिसके प्रति द्वेष होता है, उसके वियोगसे 'हर्ष' होता है। इसके विपरीत जिसके प्रति राग होता है, उसके वियोग या वियोगकी आशङ्कासे और

जिसके प्रति द्वेष होता है, उसके संयोग या संयोगकी आशङ्कासे 'शोक' होता है। सिद्ध भक्तमें राग-द्वेषका अत्यन्ताभाव होनेसे स्वतः एक साम्यावस्था निरन्तर रहती है। इसलिये वह विकारोंसे सर्वथा रहित होता है।   जैसे रात्रिके समय अन्धकारमें दीपक जलानेकी कामना होती है; दीपक जलानेसे हर्ष होता है, दीपक बुझानेवालेके प्रति द्वेष या क्रोध होता है और पुनः दीपक कैसे जले -- ऐसी चिन्ता होती है। रात्रि होनेसे ये चारों बातें

होती हैं। परन्तु मध्याह्नका सूर्य तपता हो तो दीपक जलानेकी कामना नहीं होती, दीपक जलानेसे हर्ष नहीं होता, दीपक बुझानेवालेके प्रति द्वेष या क्रोध नहीं होता और (अँधेरा न होनेसे) प्रकाशके अभावकी चिन्ता भी नहीं होती। इसी प्रकार भगवान्से विमुख और संसारके सम्मुख होनेसे शरीरनिर्वाह और सुखके लिये अनुकूल पदार्थ, परिस्थिति आदिके मिलनेकी कामना होती है इनके मिलनेपर हर्ष होता है; इनकी प्राप्तिमें बाधा पहुँचानेवालेके

प्रति द्वेष या क्रोध होता है; और इनके न मिलनेपर 'कैसे मिलें' ऐसी चिन्ता होती है। परन्तु जिसको (मध्याह्नके सूर्यकी तरह) भगवत्प्राप्ति हो गयी है, उसमें ये विकार कभी नहीं रहते। वह पूर्णकाम हो जाता है। अतः उसको संसारकी कोई आवश्यकता नहीं रहती।   'शुभाशुभपरित्यागी'--ममता, आसक्ति और फलेच्छासे रहित होकर ही शुभ कर्म करनेके कारण भक्तके कर्म 'अकर्म' हो जाते हैं। इसलिये भक्तको शुभ कर्मोंका भी त्यागी कहा गया है।

राग-द्वेषका सर्वथा अभाव होनेके कारण उससे अशुभ कर्म होते ही नहीं। अशुभ कर्मोंके होनेमें कामना, ममता, आसक्ति ही प्रधान कारण हैं, और भक्तमें इनका सर्वथा अभाव होता है। इसलिये उसको अशुभ कर्मोंका भी त्यागी कहा गया है।भक्त शुभ-कर्मोंसे तो राग नहीं करता और अशुभ-कर्मोंसे द्वेष नहीं करता। उसके द्वारा स्वाभाविक शास्त्रविहित शुभ कर्मोंका आचरण और अशुभ (निषिद्ध एवं काम्य) कर्मोंका त्याग होता है, राग-द्वेषपूर्वक

नहीं। राग-द्वेषका सर्वथा त्याग करनेवाला ही सच्चा त्यागी है।   मनुष्यको कर्म नहीं बाँधते, प्रत्युत कर्मोंमें राग-द्वेष ही बाँधते हैं। भक्तके सम्पूर्ण कर्म राग-द्वेषरहित होते हैं, इसलिये वह शुभाशुभ सम्पूर्ण कर्मोंका परित्यागी है।   'शुभाशुभपरित्यागी' पदका अर्थ शुभ और अशुभ कर्मोंके फलका त्यागी भी लिया जा सकता है। परन्तु इसी श्लोकके पूर्वार्धमें आये 'न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति' पदोंका सम्बन्ध

भी शुभ (अनुकूल) और अशुभ (प्रतिकूल) कर्मफलके त्यागसे ही है। अतः यहाँ 'शुभाशुभपरित्यागी' पदका अर्थ शुभाशुभ कर्मफलका त्यागी माननेसे पुनरुक्ति-दोष आता है। इसलिये इस पदका अर्थ शुभ एवं अशुभ कर्मोंमें राग-द्वेषका त्यागी ही मानना चाहिये।   'भक्तिमान्यः स मे प्रियः'-- भक्तकी भगवान्में अत्यधिक प्रियता रहती है। उसके द्वारा स्वतः-स्वाभाविक भगवान्का चिन्त, स्मरण, भजन होता रहता है। ऐसे भक्तको यहाँ 'भक्तिमान्'

कहा गया है।भक्तका भगवान्में अनन्य प्रेम होता है? इसलिये वह भगवान्को प्रिय होता है।  सम्बन्ध--अब आगेके दो श्लोकोंमें सिद्ध भक्तके दस लक्षणोंवाला पाँचवाँ और अन्तिम प्रकरण कहते हैं।

भगवद गीता 12.17 - अध्याय 12 श्लोक 17 हिंदी और अंग्रेजी