इस छोटे अध्याय में आध्यात्मिक साधनाओं के अन्य मार्गों की अपेक्षा भक्ति मार्ग की सर्वोत्कृष्टता के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। इसका प्रारम्भ अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण से पूछे गए इस प्रश्न से होता है कि वह योग में किन्हें पूर्ण माने, क्या जो भगवान की साकार रूप में भक्ति करते हैं या वे जो निराकार ब्रह्म की उपासना करते हैं? इसका उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि दोनों मार्ग भगवद्प्राप्ति की ओर ले जाते हैं किन्तु वे उनकी साकार रूप की पूजा करने वाले भक्त का श्रेष्ठ योगी के रूप में सम्मान करते हैं। वे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मायाबद्ध देह धारियों के लिए उनके निराकार अव्यक्त रूप की आराधना करना कष्टदायक और अत्यंत कठिन है जबकि साकार रूप की आराधना करने वाले भक्त अपनी चेतना के साथ भगवान में विलीन हो जाते हैं और उनके प्रत्येक कर्म भगवान को समर्पित होते हैं तथा वे शीघ्रता से जीवन मरण के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन को अपनी बुद्धि उन्हें समर्पित करने और अपने मन को केवल उनकी प्रेममयी भक्ति में स्थिर करने के लिए कहते हैं। किन्तु ऐसा प्रेम प्रायः संघर्षमयी आत्मा लभ्य नहीं होता। इसलिए श्रीकृष्ण अन्य विकल्प देते हुए कहते हैं कि यदि अर्जुन तुरन्त अपने मन को पूर्ण रूप से भगवान में एकाग्र करने की अवस्था प्राप्त नहीं कर सकता तब उसे निरन्तर अभ्यास द्वारा पूर्णता की अवस्था को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। भक्ति कोई रहस्यमयी उपहार नहीं है। इसे निरन्तर प्रयास से पोषित किया जा सकता है। यदि अर्जुन इतना भी नहीं कर सकता तब भी उसे पराजय स्वीकार नहीं करनी चाहिए अपितु इसके विपरीत उसे केवल श्रीकृष्ण के सुख के लिए अपने कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए। यदि उसके लिए ऐसा करना भी संभव नहीं है तब उसे अपने कर्म फलों का त्याग कर देना चाहिए और अपनी आत्मा में स्थित हो जाना चाहिए। अब श्रीकृष्ण बताते हैं कि लौकिक कर्मों से श्रेष्ठ ज्ञान अर्जन करना है और ज्ञान अर्जन से श्रेष्ठ ध्यान है और ध्यान से श्रेष्ठ कर्म फलों का त्याग करना है जो तुरन्त परम शांति प्राप्त करने के मार्ग की ओर ले जाता है। इस अध्याय के शेष श्लोकों में उनके प्रिय भक्तों के अद्भुत गुणों का वर्णन किया गया है जो भगवान को अत्यन्त प्रिय हैं।