Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

भक्त्या त्वनन्यया शक्यमहमेवंविधोऽर्जुन। ज्ञातुं दृष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।।11.54।।

bhaktyā tv ananyayā śhakya aham evaṁ-vidho ’rjuna jñātuṁ draṣhṭuṁ cha tattvena praveṣhṭuṁ cha parantapa

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Word Meanings

bhaktyāby devotion
tualone
ananyayāunalloyed
śhakyaḥpossible
ahamI
evam-vidhaḥlike this
arjunaArjun
jñātumto be known
draṣhṭumto be seen
chaand
tattvenatruly
praveṣhṭumto enter into (union with me)
chaand
parantapascorcher of foes
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अनुवाद

।।11.54।। परन्तु हे शत्रुतापन अर्जुन ! इस प्रकार (चतुर्भुजरूपवाला) मैं अनन्यभक्तिसे ही तत्त्वसे जाननेमें, सगुणरूपसे देखनेमें और प्राप्त करनेमें शक्य हूँ।

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टीका

।।11.54।। व्याख्या--'भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन'--यहाँ 'तु' पद पहले बताये हुए साधनोंसे विलक्षण साधन बतानेके लिये आया है। भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन ! तुमने मेरा जैसा शङ्ख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुजरूप देखा है, वैसा रूपवाला मैं यज्ञ, दान, तप आदिके द्वारा नहीं देखा जा सकता, प्रत्युत अनन्यभक्तिके द्वारा ही देखा जा सकता हूँ। अनन्यभक्तिका अर्थ है -- केवल भगवान्का ही आश्रय हो, सहारा हो,

आशा हो, विश्वास हो (टिप्पणी प0 616)। भगवान्के सिवाय किसी योग्यता, बल, बुद्धि आदिका किञ्चिन्मात्र भी सहारा न हो। इनका अन्तःकरणमें किञ्चिन्मात्र भी महत्त्व न हो। यह अनन्यभक्ति स्वयंसे ही होती है, मनबुद्धिइन्द्रियों आदिके द्वारा नहीं। तात्पर्य है कि केवल स्वयंकी व्याकुलता पूर्वक उत्कण्ठा हो, भगवान्के दर्शन बिना एक क्षण भी चैन न पड़े। ऐसी जो भीतरमें स्वयंकी बैचेनी है, वही भगवत्प्राप्तिमें खास कारण है।

इस बेचैनी में, व्याकुलतामें अनन्त जन्मोंके अनन्त पाप भस्म हो जाते हैं। ऐसी अनन्यभक्तिवालोंके लिये ही भगवान्ने कहा है -- जो अनन्यचित्तवाला भक्त नित्यनिरन्तर मेरा चिन्तन करता है, उसके लिये मैं सुलभ हूँ (गीता 8। 14) और जो अनन्यभक्त मेरा चिन्तन करते हुए उपासना करते हैं, उनका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ (गीता 9। 22)।अनन्यभक्तिका दूसरा तात्पर्य यह है कि अपनेमें भजनस्मरण करनेका, साधन करनेका, उत्कण्ठापूर्वक

पुकारनेका जो कुछ सहारा है, वह सहारा किञ्चिन्मात्र भी न हो। फिर साधन किसलिये करना है केवल अपना अभिमान मिटानेके लिये अर्थात् अपनेमें जो साधन करनेके बलका भान होता है, उसको मिटानेके लिये ही साधन करना है। तात्पर्य है कि भगवान्की प्राप्ति साधन करनेसे नहीं होती, प्रत्युत साधनका अभिमान गलनेसे होती है। साधनका अभिमान गल जानेसे साधकपर भगवान्की शुद्ध कृपा असर करती है अर्थात् उस कृपाके आनेमें कोई आड़ नहीं रहती और (उस कृपासे) भगवान्की प्राप्ति हो जाती है।

भगवद गीता 11.54 - अध्याय 11 श्लोक 54 हिंदी और अंग्रेजी