Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्। मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।।11.33।।

tasmāt tvam uttiṣhṭha yaśho labhasva jitvā śhatrūn bhuṅkṣhva rājyaṁ samṛiddham mayaivaite nihatāḥ pūrvam eva nimitta-mātraṁ bhava savya-sāchin

0:00 / --:--

Word Meanings

tasmāttherefore
tvamyou
uttiṣhṭhaarise
yaśhaḥhonor
labhasvaattain
jitvāconquer
śhatrūnfoes
bhuṅkṣhvaenjoy
rājyamkingdom
samṛiddhamprosperous
mayāby me
evaindeed
etethese
nihatāḥslain
pūrvamalready
eva nimitta-mātramonly an instrument
bhavabecome
savya-sāchinArjun, the one who can shoot arrows with both hands
•••

अनुवाद

।।11.33।। इसलिये तुम युद्धके लिये खड़े हो जाओ और यशको प्राप्त करो तथा शत्रुओंको जीतकर धन-धान्यसे सम्पन्न राज्यको भोगो। ये सभी मेरे द्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन् !  तुम निमित्तमात्र बन जाओ।

•••

टीका

।।11.33।। व्याख्या--'तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व'--हे अर्जुन ! जब तुमने यह देख ही लिया कि तुम्हारे मारे बिना भी ये प्रतिपक्षी बचेंगे नहीं, तो तुम कमर कसकर युद्धके लिये खड़े हो जाओ और मुफ्तमें ही यशको प्राप्त कर लो। इसका तात्पर्य है कि यह सब होनहार है, जो होकर ही रहेगी और इसको मैंने तुम्हें प्रत्यक्ष दिखा भी दिया है। अतः तुम युद्ध करोगे तो तुम्हें मुफ्तमें ही यश मिलेगा और लोग भी कहेंगे कि अर्जुनने

विजय कर ली? 'यशो लभस्व' कहनेका यह अर्थ नहीं है कि यशकी प्राप्ति होनेपर तुम फूल जाओ कि 'वाह' ! मैंने विजय प्राप्त कर ली', प्रत्युत तुम ऐसा समझो कि जैसे ये प्रतिपक्षी मेरे द्वारा मारे हुए ही मरेंगे, ऐसे ही यश भी जो होनेवाला है, वही होगा। अगर तुम यशको अपने पुरुषार्थसे प्राप्त मानकर राजी होओगे, तो तुम फलमें बँध जाओगे -- 'फले सक्तो निबध्यते' (गीता 5। 12)। तात्पर्य यह हुआ कि लाभ-हानि, यश-अपयश सब प्रभुके

हाथमें है। अतः मनुष्य इनके साथ अपना सम्बन्ध न जो़ड़े; क्योंकि ये तो होनहार हैं।     'जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्'--समृद्ध राज्यमें दो बातें होती हैं -- (1) राज्य निष्कण्टक हो अर्थात् उसमें बाधा देनेवाला कोई भी शत्रु या प्रतिपक्षी न रहे और (2) राज्य धन-धान्यसे सम्पन्न हो अर्थात् प्रजाके पास खूब धन-सम्पत्ति हो; हाथी, घोड़े, गाय, जमीन, मकान, जलाशय आदि आवश्यक वस्तुएँ भरपूर हों प्रजाके खाने

के लिये भरपूर अन्न हो। इन दोनों बातोंसे ही राज्यकी समृद्धता, पूर्णता होती है। भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि शत्रुओंको जीतकर तुम ऐसे निष्कण्टक और धन-धान्यसे सम्पन्न राज्यको भोगो।यहाँ राज्यको भोगनेका अर्थ अनुकूलताका सुख भोगनेमें नहीं है, प्रत्युत यह अर्थ है कि साधारण लोग जिसे भोग मानते हैं, उस राज्यको भी तुम अनायास प्राप्त कर लो।

भगवद गीता 11.33 - अध्याय 11 श्लोक 33 हिंदी और अंग्रेजी