Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

स्वयमेवात्मनाऽत्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम। भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते।।10.15।।

swayam evātmanātmānaṁ vettha tvaṁ puruṣhottama bhūta-bhāvana bhūteśha deva-deva jagat-pate

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Word Meanings

swayamyourself
evaindeed
ātmanāby yourself
ātmānamyourself
vetthaknow
tvamyou
puruṣha-uttamathe Supreme Personality
bhūta-bhāvanathe Creator of all beings
bhūta-īśhathe Lord of everything
deva-devathe God of gods
jagat-patethe Lord of the universe
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अनुवाद

।।10.15।। हे भूतभावन ! हे भूतेश ! हे देवदेव ! हे जगत्पते ! हे पुरुषोत्तम ! आप स्वयं ही अपने-आपसे अपने-आपको जानते हैं।

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टीका

।।10.15।। व्याख्या--'भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते पुरुषोत्तम'--सम्पूर्ण प्राणियोंको संकल्पमात्रसे उत्पन्न करनेवाले होनेसे आप 'भूतभावन' हैं; सम्पूर्ण प्राणियोंके और देवताओंके मालिक होनेसे आप 'भूतेश' और 'देवदेव' हैं; जड-चेतन, स्थावर-जङ्गममात्र जगत्का पालन-पोषण करनेवाले होनेसे आप 'जगत्पति' हैं; और सम्पूर्ण पुरुषोंमें उत्तम होनेसे आप लोकमें और वेदमें 'पुरुषोत्तम' नामसे कहे गये हैं (गीता 15। 18) (टिप्पणी

प0 550)। इस श्लोकमें पाँच सम्बोधन आये हैं। इतने सम्बोधन गीताभरमें दूसरे किसी भी श्लोकमें नहीं आये। कारण है कि भगवान्की विभूतियोंकी और भक्तोंपर कृपा करनेकी बात सुनकर अर्जुनमें भगवान्के प्रति विशेष भाव पैदा होते हैं और उन भावोंमें विभोर होकर वे भगवान्के लिये एक साथ पाँच सम्बोधनोंका प्रयोग करते हैं (टिप्पणी प0 551)। 'स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वम्'--भगवान् अपने-आपको अपनेआपसे ही जानते हैं। अपने-आपको

जाननेमें उन्हें किसी प्राकृत साधनकी आवश्यकता नहीं होती। अपने-आपको जाननेमें उनकी अपनी कोई वृत्ति पैदा नहीं होती, कोई जिज्ञासा भी नहीं होती, किसी करण-(अन्तःकरण और बहिःकरण-) की आवश्यकता भी नहीं,होती। उनमें शरीर-शरीरीका भाव भी नहीं है। वे तो स्वतः-स्वाभाविक अपने-आपसे ही अपने-आपको जानते हैं। उनका यह ज्ञान करण-निरपेक्ष है, करण-सापेक्ष नहीं।इस श्लोकका भाव यह है कि जैसे भगवान् अपने-आपको अपने-आपसे ही जानते

हैं, ऐसे ही भगवान्के अंश जीवको भी अपने-आपसे ही अपने-आपको अर्थात् अपने स्वरूपको जानना चाहिये। अपने-आपको अपने स्वरूपका जो ज्ञान होता है, वह सर्वथा करण-निरपेक्ष होता है। इसलिये इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे अपने स्वरूपको नहीं जान सकते। भगवान्का अंश होनेसे भगवान्की तरह जीवका अपना ज्ञान भी करण-निरपेक्ष है।  सम्बन्ध--विभूतियोंका ज्ञान भगवान्में दृढ़ करानेवाला है (गीता 10। 7)। अतः अब आगेके श्लोकोंमें अर्जुन भगवान्से विभूतियोंको विस्तारसे कहनेके लिये प्रार्थना करते हैं।

भगवद गीता 10.15 - अध्याय 10 श्लोक 15 हिंदी और अंग्रेजी